शुक्रवार, नवंबर 06, 2009

प्रभाष जोशी का जाना !


हिंदी के जाने-माने पत्रकार प्रभाष जोशी का निधन हो गया है.

वर्षों से हिंदी अख़बार जनसत्ता से जुड़े रहे प्रभाष जोशी को गुरुवार की रात दिल का दौरा पड़ा था. गुरुवार रात क़रीब साढ़े ग्यारह बजे उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.

प्रभाष जोशी 73 वर्ष के थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी, उनके दो बेटे और एक बेटी है.

हिंदी अख़बार नई दुनिया से पत्रकारिता करियर शुरू करने वाले प्रभाष जोशी उस समय ज़्यादा सुर्ख़ियों में आए, जब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के हिंदी अख़बार जनसत्ता के संस्थापक संपादक की कुर्सी संभाली.

अपनी धारदार लेखनी और बेबाक टिप्पणियों के लिए मशहूर प्रभाष जोशी अपने क्रिकेट प्रेम के लिए भी चर्चित थे.

राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों के अलावा क्रिकेट पर भी उनका लेखन ज़बरदस्त था. जनसत्ता में नियमित छपने वाला उनका कॉलम कागद कारे भी काफ़ी लोकप्रिय था.

जनसत्ता

1983 में उन्होंने जनसत्ता के संपादक का काम संभाला था. इस अख़बार से उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की दिशा बदल कर रख दी. प्रभाष जोशी के नेतृत्व में जनसत्ता में प्रतिभाशाली पत्रकारों की एक पूरी फौज थी.

जनसत्ता ने उन दिनों न सिर्फ़ राजनीतिक गलियारों में अपनी पैठ बनाई बल्कि अपनी सीधी, सहज लेकिन धारदार भाषा की वजह से आम लोगों का भी दिल जीता.

वर्ष 1995 में प्रभाष जोशी जनसत्ता के संपादक के पद से रिटायर हो गए लेकिन इसके बाद भी वर्षों तक वे जनसत्ता के संपादकीय सलाहकार के रूप में काम करते रहे.

मध्य प्रदेश के इंदौर के रहने वाले प्रभाष जोशी ने इंडियन एक्सप्रेस के स्थानीय संपादक के रूप में अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली में काम किया था.

गुरुवार, अक्टूबर 15, 2009

दीपावली की शुभकामनाएं !


पूरी हो हर बात जो दिल में आपने पाली हो!
मंगलमय
हम सबकी हर बार दिवाली हो !
असतो माँ सद गमय ,अर्थात अन्धकार से प्रकाश की और ले चलो!अंधकार और प्रकाश जो सत्य और असत्य के प्रतीक हैं,इनको मान कर हम दीपावली को सत्य की असत्य पर विजय के रूप में मनातें हैं!बचपन से आज तक हम इस पर्व को मनाते रहें हैं जिसमे दीप जलना मिठाई बाँटना (मिठाई के साथ पहले प्रेम भी शामिल हुआ करता था ) शामिल है! मगर आज इस पर्व के मायने भी बदलते नज़र रहें हैं !मिठाई के डबे जहाँ दिखावे के प्रतीक होते जा रहें हैं वहीँ प्रेम भी पैसे और दिखावे के बीच कहीं दब गया है !हम सब आज बाज़ार की गिरफ्त में हैं जहा शुभकामनायें भी बाजार का हिस्सा हैं!( ब्रांडेड ग्रीटिंग कार्ड्स के रूप में ) ऐसे परिवेश में स्वयं को सँभालते हुए मै आप सभी को इस प्रकाशपर्व की शुभकामनाएं देता हू ! - उमेश पाठक

शुक्रवार, अक्टूबर 09, 2009

उधार की शहरी जिंदगी


- उमेश पाठक
यू
तो सबकी जिंदगी जीने के अपने तरीके होते हैं और हर आदमी अपने हिसाब से ही जीता है लेकिन शहरी जिंदगी का अपना अलग ही रूप है ! इस भौतिक युग में जहा आम आदमी दाल -रोटी से जूझ रहा है वहीँ शहरी मध्य वर्ग अपनी आवश्यकताओं /उपभोग की वस्तुओं के लिए अपनी जिंदगी किश्तों (इंस्टालमेंट ) के नाम किए हुए है ! लोगों की एक बड़ी संख्या है जो किसी किसी लोन मसलन कार/घर आदि का किश्त भरने में लगी है !ये वो लोग हैं जो अपना आने वाला १०-२० साल इसी उधारी के नाम कर चुकें हैं!वे चाहें या चाहें उन्हें इन किश्तों के लिए काम करना ही होगा ! मतलब ये की वर्तमान तो वर्तमान ,भविष्य भी उधार है ,उस पर हमारा कोई बस नही(जब तक किश्त पुरा न हो जाए ) यानि अगले दस-बीस साल की जिंदगी उधार की है !
पुराने ज़माने में साहूकारों ने जो काम किया था आज वही काम विभिन्न कम्पनियां कर रही हैं! साहूकार जहा ज़रूरत पर धन उपलब्ध करते थें ये कम्पनियां अपने उत्पाद/वस्तुएं दे रहीं हैं ! गौर से देखें तो यह उसी सहकारी का बदला हुआ रूप है जो हमें प्रेमचंद की कहानियो में दिखता है !शोषण यहाँ भी है लेकिन छद्म रूप में /छिपा हुआ जिसे सभी लोग आसानी से नही समझ पातें! योजना स्टाक रहने तक और आकर्षक ऑफर के पीछे के कंडीसन अप्लाई या शर्तें लागू का सच तो बाद में उजागर होता है !
महात्मा गाँधी ने कहा था "हमें संसाधनों का कम से कम प्रयोग की आदत डालनी चाहिये ,जिससे सभी लोगों की आवश्यकता की पूर्ति हो सके!"आज स्थिति इसके ठीक विपरीत है !हम सभी लोग अपनी आवश्यकता बढ़ने में लगें हैं! जाहिर है किसी न किसी की ज़रूरत तो बाधित होगी ही !इसका ये मतलब नही है की हम चीजों का उपभोग न करें लेकिन जहाँ तक संभव हो सके कम उपभोग/प्रयोग तो कर ही सकते हैं और अपना जीवन बिना किसी के दबाव के जी सकतें हैं !उधार की जिंदगी से बचने का अन्य कोई रास्ता नही है!इसी जीवन में सच्चा सुख है ,ये उधार की वस्तुएं हमें सच्चा सुख नही दे सकती बल्कि एक प्रकार की पराधीनता का ही एहसास कराती हैं!

सोमवार, सितंबर 28, 2009

भगवती चरण वर्मा :व्यंग-चित्र के सफल चितेरे !

हिन्दी साहित्य में यू तो एक से बढ़ कर एक नाम हैं ,मगर जिस सहजता के साथ भगवती चरण वर्मा गुदगुदा कर व्यंग का तीर छोड़ते हैं ,वह बहुत कम देखने को मिलता है!"वसीयत "उनकी ऐसी ही एक कालजयी रचना है!वसीयत के अलावा सबही नचावत राम गोसाई भी उनकी कलम की तेज़ धार की पैनी कृति है !वर्मा जी केवल सामयिक पात्रों का चयन करते हैं,बल्कि उनके संवादों में भी लोकभाषा या उस कल-युग का विशेष ध्यान देतें हैं !अपने विषय के साथ गंभीर संदेश के लिए भी उनकी रचनाएँ प्रासंगिक हैं !
वसीयत में पंडित चूडामणि के पात्र को कोई कैसे भूल सकता है,सांसारिक रिश्तों-संबंधों के पीछे छिपी सच्चाई और मनुष्य के लालची मन का हिन्दी में ऐसा चित्रण कहीं अन्य देखने को नही मिलता !

गुरुवार, सितंबर 24, 2009

सांप - सीढ़ी और इन्सान की ज़िन्दगी !


- उमेश पाठक
हम सभी बचपन में लूडो में सांप-सीढ़ी का खेल खेलते रहे हैं!बड़ी कोशिशों के बाद १०० (लक्ष्य) तक पहुचना और अचानक एक सांप के काटने के बाद फ़िर शून्य पर पहुच जातें हैं! इंसानी जिंदगी की भी कुछ ऐसी ही फितरत है !हमारे अच्छे-बुरे कर्म भी सांप और सीढ़ी की तरह ही हैं !अच्छे कर्म को हम सीढ़ी और बुरे कर्मों को सांप मान सकते हैं !हमरे एक-एक अच्छे कर्म हमे धीरे-धीरे अपने इक्षित लक्ष्य की और ले जाते हैं और अगर लगातार कर्म अच्छे ही रहे तो हमें अपना लक्ष्य मिल भी जाता है !इसके ठीक विपरीत हमारे बुरे कर्म हैं ! सारे अच्छे कर्म करने के बाद भी हमारी एक चूक/बुरा कर्म हमें अचानक नीचे गिरा देता है ,जैसे सांप-सीढ़ी खेल का सांप!इस लिए ये ज़रूरी है की हम अपने सद्कर्मों में सामजस्य बना कर रखें जिससे हमें बार-बार नीचे नही गिरना पड़े!इसके लिए ये भी ज़रूरी है की हम अपने अच्छे -बुरे कर्मों का ख़ुद हिसाब रखे क्योंकि अपना सही आत्म्मुल्यांकन आप ही कर सकते हैं !

बुधवार, सितंबर 16, 2009

मेरे यकीन का जब उसने इम्त्तिहान लिया...


- उमेश पाठक
मेरे यकीन का जब उसने इम्त्तिहान लिया॥
जो सच नही था ,उसको भी उसने मान लिया !
दिल को समझाने की कोशिश मेरी बेकार हुयी,
मेरे दिल ने भी तो उसी का कहा मान लिया !
बेवफाई-वफ़ा ,सभी है,पर यकीन के बाद ,
आसमान भी तो मिल जाता है ,ज़मीन के बाद ,
जिसमे बसती है , दुनिया मेरी ,
उसने मुझसे मेरा ज़मीनों-आसमान लिया!
मेरे यकीन का जब उसने इम्त्तिहान लिया॥
जो सच नही था ,उसको भी उसने मान लिया !

रविवार, सितंबर 13, 2009

हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं और फादर कामिल बुल्के !

-उमेश पाठक
अपनी बात ....के समस्त पाठकों को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं! कितना अच्छा हो की इस अवसर पर हम फादर कामिल बुल्के से सबक लें,जिन्होंने बेल्जिंयम् में पैदा होने के बाद भी पूरी ज़िन्दगी भारत में रह कर हिन्दी की सेवा की ! फ़ादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिंदी से जीवन भर प्यार करते रहे, एक विदेशी होकर नहीं बल्कि एक भारतीय होकर.रॉंची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज में बुल्के ने वर्षों तक हिंदी का अध्यापन किया.

रामकथा के महत्व को लेकर बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर प्रामाणिक तथ्य जुटाए. उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के क़रीब 300 रूपों की पहचान की.

रामकथा पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया है जो अपने आप में हिंदी शोध के क्षेत्र में एक मानक है।

बुल्के ने हिंदी प्रेम के कारण अपनी पीएचडी थीसिस हिंदी में ही लिखी.

जिस समय वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी। उन्होंने जब हिंदी में थीसिस लिखने की अनुमति माँगी तो विश्वविद्यालय ने अपने शोध संबंधी नियमों में बदलाव लाकर उनकी बात मान ली. उसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी हिंदी में थीसिस लिखी जाने लगी.

उन्होंने एक जगह लिखा है, "मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रॉंची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया."

विदेशी मूल के ऐसे कई अध्येता हुए हैं जिन्हें इंडोलॉजिस्ट या भारतीय विद्याविद् कहा जाता है. उन्होंने भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति को अपने नजरिए से देखा-परखा. लेकिन इन विद्वानों की दृष्टि ज्यादातर औपनिवेशिक रही है और इस वजह से कई बार वे ईमानदारी से भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति का अध्ययन करने में चूक गए.

बुल्के ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को उसकी संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया.वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है।

आज हम भारतीय हिन्दी को जिस उपेक्षा से देखते हैं,सामान्य बात-चीत में अधिकतर अंग्रेजी का ही प्रयोग करते है ऐसे में हिन्दी के इस विदेशी सेवक के प्रति सर श्रद्धा से झुक जाता है !

मीडिया की भाषा :



बीबीसी हिन्दी एक प्रतिष्ठित समाचार सेवा है,प्रमाणिकता और विश्वश्नियता के सन्दर्भ में इसकी मिसल दी जाती है! कैसे गढ़ती है बीबीसी अपनी भाषा ,क्या तयारी होती है ,इन प्रश्नों के समाधान के लिए जानते है बीबीसी से ही उसकी भाषाई विशेषता के बारे में ! -उमेश पाठक

बीबीसी हिंदी की भाषा :
बीसी की हिंदी क्यों विशेष है, यह जानने के लिए उसकी परंपरा को जानना ज़रूरी है. बीबीसी के हिंदी विभाग की जब नींव पड़ी थी, तब हिंदी और उर्दू के बीच दीवारें नहीं बनीं थीं. आज़ादी से पहले का ज़माना था, आम आदमी के बोल चाल की भाषा में हिंदी-उर्दू की मिली जुली रसधारा बहती थी जिसे भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक कहा जाता है.

इस संस्कृति को बीबीसी के मंच से मज़बूत करने वाले कई प्रसारक और पत्रकार रहे, जैसे बलराज साहनी, आले हसन, पुरूषोत्तम लाल पाहवा, गौरीशंकर जोशी, ओंकारनाथ श्रीवास्तव..... सूची लंबी है, पर बात एक ही है—समय के साथ बीबीसी की हिंदी कठिन और किताबी होने से बची रही.
हमारी नज़र में बीबीसी की हिंदी की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि-
•वह ऐसी भाषा है जो आम लोगों की समझ में आती है, यानी आसान है. संस्कृतनिष्ठ या किताबी नहीं है.

•दूसरी बात, वह अपने कथ्य के साथ पूरा न्याय करती है. मतलब आप जो कहना चाहें, उसी बात को शब्द व्यक्त करते हैं

•वाक्य छोटे होते हैं, सरल होते हैं

•और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बीबीसी की हिंदी भारत की गंगाजमुनी संस्कृति का प्रतीक है. आज भी हमारी हिंदी में हिंदी-उर्दू के शब्द गले में बाहें डाले साथ-साथ चलते हैं और ज़रुरत पड़ने पर अँगरेज़ी के शब्दों से भी हाथ मिला लेते हैं.
रेडियो की भाषा :
प्रकाशन और प्रसारण की भाषा में अंतर है. भारी भरकम लंबे शब्दों से हम बचते हैं, (जैसे, प्रकाशनार्थ, द्वंद्वात्मक, गवेषणात्मक, आनुषांगिक, अन्योन्याश्रित, प्रत्युत्पन्नमति, जाज्वल्यमान आदि. ऐसे शब्दों से भी बचने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ हिंदी की पुरानी किताबों में ही मिलते हैं – जैसे अध्यवसायी, यथोचित, कतिपय, पुरातन, अधुनातन, पाणिग्रहण आदि.

एक बात और. बहुत से शब्दों या संस्थाओं के नामों के लघु रूप प्रचलित हो जाते हैं जैसे यू. एन., डब्लयू. एच. ओ. वग़ैरह. लेकिन हम ये भी याद रखते हैं कि हमारे प्रसारण को शायद कुछ लोग पहली बार सुन रहे हों और वे दुनिया की राजनीति के बारे में ज़्यादा नहीं जानते हों.

इसलिए, यह आवश्यक हो जाता है कि संक्षिप्त रूप के साथ उनके पूरे नाम का इस्तेमाल किया जाए. जहाँ संस्थाओं के नामों के हिंदी रूप प्रचलित हैं, वहाँ उन्हीं का प्रयोग करते हैं (संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन) लेकिन कुछ संगठनों के मूल अँग्रेज़ी रूप ही प्रचलित हैं जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वाच.

संगठनों-संस्थाओं के अलावा, नित्य नए समझौतों-संधियों के नाम भी आए दिन हमारी रिपोर्टों में शामिल होते रहते हैं. ऐसे नाम हैं- सीटीबीटी और आइएईए वग़ैरह. भले ही यह संक्षिप्त रूप प्रचलित हो चुके हैं मगर सुनने वाले की सहूलियत के लिए हम सीटीबीटी कहने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते चलते हैं कि इसका संबंध परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध से है. या कहते हैं आइएईए यानी संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी.

कई बार जल्दबाज़ी में या नए तरीक़े से न सोच पाने के कारण घिसे पिटे शब्दों, मुहावरों या वाक्यों का सहारा लेना आसान मालूम पड़ता है. लेकिन इससे रेडियो की भाषा बोझिल और बासी हो जाती है. ज्ञातव्य है, ध्यातव्य है, मद्देनज़र, उल्लेखनीय है या ग़ौरतलब है – ऐसे सभी प्रयोग बौद्धिक भाषा लिखे जाने की ग़लतफ़हमी तो पैदा कर सकते हैं पर ये ग़ैरज़रूरी हैं.

एक और शब्द है द्वारा. इसे रेडियो और अख़बार दोनों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है लेकिन ये भी भाषाई आलस्य का नमूना है. क्या आम बातचीत में कभी आप कहते हैं कि ये काम मेरे द्वारा किया गया है? या सरकार द्वारा नई नौकरियाँ देने की घोषणा की गई है? अगर द्वारा शब्द हटा दिया जाए तो बात सीधे सीधे समझ में आती है और कहने में भी आसान हैः (ये काम मैंने किया. या सरकार ने नई नौकरियाँ देने की घोषणा की है.)

रेडियो की भाषा मंज़िल नहीं, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता है. मंज़िल है- अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना. इसलिए, सही मायने में रेडियो की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो बातचीत की भाषा हो, आपसी संवाद की भाषा हो. उसमें गर्माहट हो जैसी दो दोस्तों के बीच होती है. यानी, रेडियो की भाषा को क्लासरुम की भाषा बनने से बचाना बेहद ज़रुरी है.

याद रखने की बात यह भी है कि रेडियो न अख़बार है न पत्रिका जिन्हें आप बार बार पढ़ सकें. और न ही दूसरी तरफ़ बैठा श्रोता आपका प्रसारण रिकॉर्ड करके सुनता है.

आप जो भी कहेंगे, एक ही बार कहेंगे. इसलिए जो कहें वह साफ-साफ समझ में आना चाहिए. इसलिए रेडियो के लिए लिखते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि वाक्य छोटे-छोटे हों, सीधे हों. जटिल वाक्यों से बचें.

साथ ही इस बात का ध्यान रखिए कि भाषा आसान ज़रूर हो लेकिन ग़लत न हो.
इंटरनेट की भाषा :
हिंदी वेबसाइट के पाठक आम हिंदी पाठकों से इस मायने में थोड़े अलग हैं कि वे हमेशा विशुद्ध साहित्यिक रुचि रखने वाले पाठक नहीं हैं. वे हिंदी वेबसाइट पर आते हैं तो उसके कई अलग-अलग कारण होते हैं.

•वे विदेशों में बसे हैं और अपनी पहचान नहीं खोना चाहते इसलिए अपनी भाषा से जुड़े रहना चाहते हैं.

•हिंदी पहली भाषा है और वे अंग्रेज़ी के मुक़ाबले हिंदी को सरल और सहज मानते हैं और समझते हैं.

•वे अंग्रेज़ी की वेबसाइटें भी देखते हैं और अक्सर हिंदी से उसकी तुलना करते हैं.

ये पाठक चाहे जो भी हों लेकिन एक बात तय है कि वे भारी-भरकम शब्दों के प्रयोग या मुश्किल भाषा से उकता जाते हैं और जल्दी ही साइट से बाहर निकल जाते हैं.

उन्हें बाँधे रखने के लिए ज़रूरी है कि साइट का कलेवर आकर्षक हो, तस्वीरें हों, छोटे-छोटे वाक्य हों, छोटे पैराग्राफ़ हों और भाषा वह हो जो उनकी बोलचाल की भाषा से मेल खाती हो.

इंटरनेट की भाषा साहित्यिक भाषा से इस मायने में अलग है कि उसको सहज और सरल बनाने के लिए ज़रूरत पड़े तो अँग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों का भी इस्तेमाल करना पड़ सकता है. जैसे कोर्ट, शॉर्टलिस्ट, अवॉर्ड, प्रोजेक्ट, सीबीआई, असेंबली आदि.

कोशिश रहती है कि उसी रिपोर्ट में कहीं न कहीं इनके हिंदी पर्यायवाची शब्द भी शामिल हों लेकिन लगातार न्यायालय, पुरस्कार, परियोजना, केंद्रीय जाँच ब्यूरो लिखना पाठक को क्लिष्टता का आभास दिला सकता है.

इसी तरह उर्दू के शब्द भी जहाँ-तहाँ इस्तेमाल हो ही जाते हैं. इनाम, अदालत, मुलाक़ात, सबक़, सिफ़ारिश, मंज़ूरी, हमला आदि ऐसे ही कुछ शब्द हैं. इंटरनेट पर कैसी भाषा का इस्तेमाल हो इसके लिए बस यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि पढ़ने वाले को डिक्शनरी खोलने की ज़रूरत न पड़े और पढ़ते समय उसे ऐसा महसूस हो जैसे यह उसकी अपनी, रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाली भाषा है.

इंटरनेट एक नया और इंटरएक्टिव माध्यम है. यानी दोतरफ़ा संवाद का माध्यम है. बीबीसी हिंदी डॉटकॉम की भाषा-शैली की गाइड बनाते वक़्त हमने सबसे पहले इस बात को ध्यान में रखा कि उसके पाठक दुनिया भर में फैले हैं. वे भले ही हिंदी पढ़ते और समझते हैं लेकिन नई टैक्नॉलॉजी के अनेक रास्ते उनके सामने खुले हैं.

उन्हें बाँधने के लिए ज़रूरी है कि बीबीसी हिंदी डॉटकॉम की भाषा ऐसी हो जो उन्हें अपनी लगे. वाक्य छोटे और आसान हों. शीर्षक यानी हेडलाइंस आकर्षक हों. अँगरेज़ी के आम शब्दों की छौंक से अगर बात और सहज होती हो तो कोई हर्ज नहीं.
शब्दों का प्रयोग : बीबीसी की हिंदी, अँग्रेज़ी के शब्दों से हाथ मिलाने में परहेज़ नहीं करती. पर सवाल यह उठता है कि किस हद तक. हिंदी में अँग्रेज़ी हो या अँग्रेज़ी में हिंदी.

यहाँ दो बातें समझने की हैं। पहली, इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी में अँग्रेज़ी के बहुत से शब्द इस तरह घुल मिल गए हैं कि पराए नहीं लगते। जैसे स्कूल, बस और बस स्टॉप, ट्रक, कार्ड, टिकट। इस तरह के शब्दों को हिंदी से बाहर निकालने का तो कोई मतलब ही नहीं है। दूसरी ये कि बेवजह अँग्रेज़ी के शब्द ठूँसने का भी कोई अर्थ नहीं।
हिंदी एक समृद्ध भाषा है। अपनी विकास यात्रा में हिंदी ने अँग्रेज़ी ही नहीं, बहुत सी और भाषाओं के शब्दों को अपनाया है जैसे- उर्दू, अरबी, फारसी. यानी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी भाषा में कई-कई विकल्प मौजूद हैं. फिर बिना ज़रूरत के अँग्रेज़ी की बैसाखी क्यों लें. (जैसे रंगों के लिए हिंदी में अपने अनगिनत शब्द हैं फिर इस तरह के वाक्य क्यों लिखे जाएँ कि ‘कार का एक्सीडेंट पिंक बिल्डिंग के पास हुआ’.)
तकनीकी और नए शब्द :

कुछ साल पहले तक हमने लैपटॉप, इंटरनेट, वेबसाइट, सर्चइंजन, मोबाइल फ़ोन या सेलफ़ोन का नाम भी नहीं सुना था. अब वे ज़िंदगी का हिस्सा हैं. और जो चीज़ हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाती है, वह भाषा का हिस्सा भी बन जाती है. बहुत कोशिशें हुईं कि इनके हिंदी अनुवाद बनाए जाएँ लेकिन कोई ख़ास सफलता हाथ नहीं लगी, इसलिए ऐसे तमाम शब्द अब हिंदी का हिस्सा बन चुके हैं.

इसलिए हम सर्वमान्य और प्रचलित तकनीकी शब्दों का अनुवाद नहीं करते. हाँ, अगर हिंदी भाषा में ऐसे शब्दों के अनुवाद प्रचलित हो चुके हैं तो बिना खटके उनका इस्तेमाल करते हैं- जैसे परमाणु, ऊर्जा, संसद, विधानसभा आदि.

मगर नए शब्दों की बात करते हुए हम उन शब्दों का ज़िक्र भी करना चाहेंगे जो अनुवाद के माध्यम से नहीं, बल्कि मीडिया की नई ज़रुरतों के दबाव में हिंदी भाषा से ही गढ़े गए हैं. इनमें सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला शब्द है- आरोपी. बीबीसी ने भाषा के नए प्रयोगों का सदा स्वागत किया है लेकिन यह समझ पाना मुश्किल है कि आरोपी शब्द कैसे बना.

हिंदी भाषा की प्रकृति और व्याकरण के हिसाब से आरोपी का अर्थ होना चाहिए- आरोप लगाने वाला लेकिन आजकल ठीक उल्टा प्रयोग हो रहा है, जिस पर आरोप लगता है उसे आरोपी कहा जाता है. कुछ उदाहरण देखिए.

दोषी- दोष करने वाला
अपराधी- अपराध करने वाला
क्रोधी- क्रोध करने वाला

भले ही अब मीडिया में बहुत से लोग इस शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं मगर बीबीसी की हिंदी में अपनी जगह नहीं बना पाया. हम यह मानते हैं कि भाषा को हर युग की ज़रुरतों के हिसाब से शब्द गढ़ने पड़ते हैं. फिर वही नए शब्द शब्दकोश में शामिल होते हैं. लेकिन नए शब्द बनाते समय मूलमंत्र बस यही है कि वे भाषा की प्रकृति के अनुकूल हों.

(बोलचाल की भाषा के नाम पर कुछ ऐसे भी प्रयोग प्रसारण में होने लगे हैं जो अशिक्षा नहीं तो भाषा के प्रति लापरवाही बरतने की निशानी ज़रूर हैं. ‘सोनू निगम ने अपना करियर दिल्ली में शुरू करा’, ‘पुलिस से पंगा न लेने की चेतावनी’ जैसे प्रयोग भाषा की धज्जियाँ तो उड़ाते ही हैं, इन्हें बरतने वाले के बारे में भी कोई अच्छी राय नहीं बनाते.)
उच्चारण :मीडिया का काम भले ही भाषा सिखाने का नहीं, मगर मीडिया के लोग, करोड़ों लोगों के लिए रोल मॉडल होते हैं.

साफ़ उच्चारण के लिए ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अभ्यास करना बहुत काम आता है. तभी अक्षर और उनकी ध्वनि साफ़ सुनाई पड़ती है. यहाँ जल्दबाज़ी से काम बिगड़ जाता है.बहुत सारे लोग युद्ध को युद, सुप्रभात को सूप्रभात, ख़ुफ़िया को खूफिया, प्रतिक्रिया को पर्तिकिरया कहते हैं जो कानों को बहुत खटकता है.

इसी तरह, शब्द हिंदी मूल का हो या उर्दू का, अगर आप बेवजह नुक़्ता लगाएँगे तो अनर्थ हो जाएगा जैसे फाटक, बेगम, जारी, जबरन, जंग, जुर्रत, जिस्म, फिर, फल आदि में नुक़्ता नहीं लगता.

मीडिया में रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो नुक़्ते के बिना कानों को बहुत बुरे लगते हैं जैसे- ख़बर, सुर्ख़ी, ज़रुरत, ज़रा, अख़बार, ग़लत, ग़म, ज़बरदस्ती.

अच्छे से अच्छा आलेख, ग़लत उच्चारण या ख़राब उच्चारण की वजह से बर्बाद हो सकता है. और कभी कभी तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है. रेडियो न तो अख़बार है, न ही टेलीविज़न. रेडियो सिर्फ़ सुना जा सकता है, इसलिए, न सिर्फ़ यह ज़रूरी है कि रेडियो की भाषा स्पष्ट और सरल हो, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि हर शब्द सही तरह से बोला जाए. शब्द किसी भी भाषा का हो, अगर आपका उच्चारण सही नहीं होगा तो सुनने वाले को बिल्कुल मज़ा नहीं आएगा.

अगर उर्दू के शब्दों का प्रयोग करें तो पहले यह जान लें कि उनमें नुक़्ता लगता है या नहीं. कुछ अति उत्साही लोग शायद यह समझते हैं कि किसी भी शब्द में नुक़्ता लगा देने भर से, वह उर्दू का शब्द बन जाता है. ज़रा सोचिए जलील शब्द को बोलते समय अगर ज के नीचे नुक़्ता लग गया तो वह बन जाएगा ज़लील. अर्थ का अनर्थ हो जाएगा.

हर व्यक्ति को अपनी भाषा अपनी क्षमता के अनुसार गढ़नी चाहिए. यानी अगर आप ख़बर शब्द साफ़ नहीं बोल सकते तो समाचार कहें, युद्ध शब्द का सही उच्चारण करना मुश्किल लगता है तो लड़ाई कह सकते हैं. प्रक्षेपास्त्र कहना कोई ज़रुरी नहीं. मिसाइल शब्द अब आम हो गया है. बात तो यह है कि हर व्यक्ति की भाषा का अपना अलग रंग होता है. और होना भी चाहिए.
अनुवाद:
एक भाषा से दूसरी भाषा में अच्छा अनुवाद तभी संभव है जब मूल पाठ की आत्मा को समझा जाए.

बीबीसी हिंदी में वैसे तो अब भारत, पाकिस्तान और अन्य दक्षिण एशियाई देशों से ज़्यादातर हिंदी में ही रिपोर्टिंग होती है लेकिन फिर भी विश्व की अन्य घटनाओं की रिपोर्टें अँग्रेज़ी में ही आती हैं क्योंकि हर देश में हिंदी जानने वाले संवाददाता नहीं हैं।
ज़ाहिर है, वहाँ अनुवाद की ज़रूरत होती है. अच्छा और सरल अनुवाद तभी हो सकता है जब आप अँग्रेज़ी पाठ को दो-तीन बार पढ़कर अच्छी तरह समझ लें. उसके बाद उसे हिंदी में लिखें.

(इंटरनेट के लिए लिखते समय शब्दशः अनुवाद का ख़तरा बना रहता है. ‘ये पहली बार नहीं है कि...’, ‘सरकार ने ये क़दम ऐसे समय में उठाया है...’, ‘कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बंगलौर से आते हैं...’ ऐसे वाक्य सीधे सीधे अँग्रेज़ी का शब्दशः अनुवाद हैं.)

कुछ अँगरेज़ी के शब्द जितने जटिल होते हैं, उनके हिंदी अनुवाद भी उतने ही जटिल होते हैं. जैसे- विसैन्यीकरण, निरस्त्रीकरण, वैश्वीकरण, सामान्यीकरण, युद्धक हैलीकॉप्टर, मरीन सैनिक.

•अनुवाद को लेकर पहला सिद्धांत ये है कि अनुवाद, अनुवाद न लगे.
•दूसरा, जो लिखा है, वह पहले लिखने वाले की समझ में आना चाहिए.
•तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मक्खी पर मक्खी न बैठाई जाए क्योंकि अँगरेज़ी और हिंदी की प्रकृति में फ़र्क है.
•और चौथा सिद्धांत यह है कि डिक्शनरी से कोई भारी-भरकम शब्द खोजने के बजाय आम भाषा में बात समझाई जाए। (साभार ,बीबीसी हिन्दी सेवा )

शुक्रवार, अगस्त 21, 2009

माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।


"इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।

अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है

ऐ अंधेरे देख ले मुंह तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफ़ा नहीं होती

‘मुनव्वर‘ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती"

किसी के हिस्से घर ,किसी के हिस्से दुकाँ आयी ,
मै घर में सबसे छोटा था ,मेरे हिस्से में माँ आयी !

यू तो जिंदगी में बुलंदियों का मकाम छुआ,
माँ ने जब गोद में लिया तो आसमान छुआ !

.....माँ पर कुछ और शेर/दोहे :

मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार!
दुःख ने दुःख से बातें की बिन चिट्ठी बिन तार !
****
ठंडक माँ के नाम की गर्मी को शरमाये!
ममता के अंचल से धुप भी छन के आए!
***
माँ फितरत की रौनकें ,माँ कुदरत का राज़ !
माँ हर्फों की शायरी ,माँ सांसो का साज़ !

{भाई श्यामल सुमन जी के`सौजन्य से, ये शेर उन्ही की टिप्पणी से हैं }

..दोस्तों माँ के ऊपर हजारो कवितायें हैं रसियन साहित्यकार मेक्सिम गोर्की ने अपनी किताब "माँ "में लिखा है-"Mothers are the dearest things of the world one can talk endless about the mothers and their protective instinct."माँ के इस अनोखे रिश्ते को आइये महसूस करें मुनव्वर राणा की इन पक्तियों में -उमेश पाठक

मंगलवार, जुलाई 28, 2009

पत्रकारिता में हिन्दी और पत्रकारिता शिक्षण के अंतर्विरोध


भारत में पत्रकारिता की शुरुआत कलकत्ता (आज के कोलकाता )में १७८० में हुई थी! एक अहिन्दी भाषी प्रान्त होने के बाद भी हिन्दी पत्रकारिता को शुरू करने का श्रेय कलकत्ता को जाता है!"जेम्स अगस्टस हिक्की " के बाद पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने १८२६ में "उदन्त मार्तंड "से हिन्दुस्तान में हिन्दी का पहला अखबार निकाला!आज देश में हिन्दी के दर्जनों बड़े अखबार है जिनकी प्रसार संख्या अंग्रेजी के बड़े अखबारों के बराबर या उनसे कुछ ही कम है!अगर टी वी चैनलों की और रुख करें तो अंग्रेजी के कुल चैनलों को उँगलियों पर गिना जा सकता है! http://www.livemint.com/ के अनुसार अभी देश में कुल ६२२ चॅनल हैं ,२००९ के अंत ताकि इनकी संख्या ७०० के पार हो जायेगी। वर्तमान में कुल हिन्दी चैनल की संख्या ७२ है जिनमे न्यूज़ ,मनोरंजन और इन्फोटेनमेंट के चैनल शामिल हैं!हिन्दी के प्रमुख न्यूज़ चैनलों में- आज तक,जी न्यूज़,आई बी एन सेवेन, डी डी न्यूज़,इंडिया टीवी ,लाइव इंडिया, एन डी टीवी इंडिया,न्यूज़ २४,सहारा समय,प्रेस टीवी, स्टार न्यूज़,लोक सभा,डी डी राज्यसभा,आजाद न्यूज़,जैन टीवी ,इंडिया न्यूज़,पी सेवेन,एस वन और वौइस् ऑफ़ इंडिया कुल २४ चैनल हैं जबकि अंग्रेज़ी के कुल ८ चैनल हैं-NDTV ,,CNN IBNTimes NowHeadlines TodayBBC WorldNews 9 CNN ! वर्तमान में मीडिया में काम करने के लिए हिन्दी और अग्रेजी दोनों ही भाषाओँ का ज्ञान ज़रूरी है!यह समय बयिलिन्गुअल (दो भाषाओँ के जानकार ) लोगों का है!अगर आप बहुभाषीय हैं तो कहना हीक्या !
टेक्‍नालाजी में वि‍कास के साथ मुद्रण माध्‍यम ने भी नए परि‍वर्तन और चुनौति‍यों को स्‍वीकार कि‍या है ।? सूचना प्रौद्योगि‍की ने भारतीय प्रेस के तेजी से वि‍कास में महत्‍वपूर्ण योगदान दि‍या है ।? आज भारतीय समाचारपत्रों ने ये साबि‍त कर दि‍या है कि‍ वे वैश्‍वीकरण की चुनौति‍यों का सामना कर सकते हैं और अपने पाठकों की संख्‍या में वृद्धि‍ कर सकते हैं ।? खासतौर से साक्षरता और शि‍क्षा के प्रसार के साथ क्षेत्रीय भाषाओं के समाचारपत्रों की संख्‍या में बढ़ोतरी इसके पाठकों की बढ़ती संख्‍या को दर्शाती है भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक कार्यालय के अनुसार 2004‑2005 के दौरान देश में प्रकाशि‍त दैनि‍कों की संख्‍या 1834 थी ,जिनमे हिन्दी भाषा के दैनि‍कों की संख्‍या 799 थी और अंग्रेजी के 181 दैनिक शामिल थें!ऍफ़ एम् रेडियो भी सारे देश में हिन्दी में ही अपना प्रसार कर रहें हैं!
देश की राजधानी दिल्ली में मीडिया के सर्वाधिक संस्थान हैं! दिल्ली देश की मीडिया की बड़ी मण्डी भी है! हाल ही में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए मशहूर गुरु गोविन्द सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय ने पत्रकारिता स्नातक (बी.जे. .एम्. सी. )के परिवर्तित पाठ्यक्रम में हिंदी की घोर उपेक्षा की है,जबकि पिछले साल इसी पाठक्रम में हिंदी माध्यम से परीक्षा देने का सर्कुलर भी विश्वविद्यालय ने जारी किया था!यह अपने आप में अंतर्विरोधी है!राजधानी में अधिकांशतः विद्यार्थियों की स्थिति हिन्दी में अच्छी नही होती! मगर इस समस्या को हल करने के बजाय पाठ्यक्रम से हिन्दी को ही निकाल देना उचित नही प्रतीत होता !पहले पाठ्यक्रम का अंग होने के कारन विद्यार्थी कुछ तो पढ़ते थें ! खैर अगर नए पाठ्यक्रम निर्माता यह मानते है की अब मीडिया में हिंदी की आवश्यकता ही नही नही तो जरा हिन्दी मीडिया संस्थानों की संख्या और आंकडो पर भी एक नज़र ज़रूर डाल लें!जिस देश के सर्वाधिक मीडिया संसथान हिन्दी में हो वहा पत्रकारिता की पढ़ाई में हिन्दी की उपेक्षा नही होनी चाहिए ! दिल्ली विश्वविद्यालय में जहा अंग्रेज़ी और हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई होती है,वहीं गुरु गोविन्द सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में ३ साल के स्नातक कोर्स में मीडिया के सभी पक्ष (पब्लिक रिलेशन,रिपोर्टिंग, एडिटिंग, साइबर ,इवेंट मैनेजमेंट ,रेडियो, टीवी पत्रकारिता आदि ) शामिल हैं! इस लिहाज से भी हिन्दी के पेपर को हटाना तर्कसंगत नही मालूम होता है!

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

कुछ हास्य व्यंग!


अक्ल बड़ी या...
महामूर्ख दरबार में, लगा अनोखा केस
फसा हुआ है मामला, अक्ल बङी या
भैंसअक्ल बङी या भैंस, दलीलें बहुत सी आईं
महामूर्ख दरबार की अब,देखो सुनवाई
मंगल भवन अमंगल हारी- भैंस सदा ही अकल पे भारी
भैंस मेरी जब चर आये चारा- पाँच सेर हम दूध निकारा
कोई अकल ना यह कर पावे- चारा खा कर दूध बनावे
अक्ल घास जब चरने जाये- हार जाय नर अति दुख पाये
भैंस का चारा लालू खायो- निज घरवारि सी.एम. बनवायो
तुमहू भैंस का चारा खाओ- बीवी को सी.एम. बनवाओ
मोटी अकल मन्दमति होई- मोटी भैंस दूध अति होई
अकल इश्क़ कर कर के रोये- भैंस का कोई बाँयफ्रेन्ड ना होये
अकल तो ले मोबाइल घूमे- एस.एम.एस. पा पा के झूमे
भैंस मेरी डायरेक्ट पुकारे- कबहूँ मिस्ड काल ना मारे
भैंस कभी सिगरेट ना पीती- भैंस बिना दारू के जीती
भैंस कभी ना पान चबाये - ना ही इसको ड्रग्स सुहाये
शक्तिशालिनी शाकाहारी- भैंस हमारी कितनी प्यारी
अकलमन्द को कोई ना जाने- भैंस को सारा जग पहचाने
जाकी अकल मे गोबर होये- सो इन्सान पटक सर रोये
मंगल भवन अमंगल हारी- भैंस का गोबर अकल पे भारी
भैंस मरे तो बनते जूते- अकल मरे तो पङते जूते

एक पत्र :
गांव में एक स्त्री थी । उसके पती आई टी आई मे कार्यरत थे । वह आपने पती को पत्र लिखना चाहती थी पर अल्पशिक्षित होने के कारण उसे यह पता नहीं था कि पूर्णविराम कहां लगेगा । इसीलिये उसका जहां मन करता था वहीं पुर्णविराम लगा देती थी ।उसने चिट्टी इस प्रकार लिखी--------मेरे प्यारे जीवनसाथी मेरा प्रणाम आपके चरणो मे । आप ने अभी तक चिट्टी नहीं लिखी मेरी सहेली कॊ । नोकरी मिल गयी है हमारी गाय को । बछडा दिया है दादाजी ने । शराब की लत लगा ली है मैने । तुमको बहुत खत लिखे पर तुम नहीं आये कुत्ते के बच्चे । भेडीया खा गया दो महीने का राशन । छुट्टी पर आते समय ले आना एक खुबसुरत औरत । मेरी सहेली बन गई है । और इस समय टीवी पर गाना गा रही है हमारी बकरी । बेच दी गयी है तुम्हारी मां । तुमको बहुत याद कर रही है एक पडोसन । हमें बहुत तंग करती है

रविवार, जून 07, 2009

ज़िन्दगी !


-उमेश पाठक

कछुए वाली खोल जिन्दगी,

गले पड़ी सी ढोल जिंदगी !

रोजी -रोटी के सवाल पर,

पढ़ती है भूगोल जिन्दगी

ऊपर से हसती -मुस्काती ,
भीतर पोलमपोल जिन्दगी !

ख़ुद से भी बातें करने में ,

करती टाल-मटोल जिन्दगी !

न जाने कब बीच सफ़र में ,

करे बिस्तरा गोल जिन्दगी !

कछुए वाली खोल जिन्दगी,
गले पड़ी सी ढोल जिंदगी !

सोमवार, मई 04, 2009

कुछ ज़रूरी प्रश्न: बी जे एम् सी २ सेमेस्टर,हिन्दी के लिए

कुछ ज़रूरी प्रश्न:
१. अनुवाद से आप क्या समझते हैं? अनुवाद के प्रकारों का वर्णन कीजिये?
२.अनुवाद के तत्वों की व्याख्या कीजिये?
३.सम्पादकीय क्या है? सम्पादकीय पृष्ठ के तत्व क्या-क्या हैं?
४.विराम चिन्ह क्या हैं?इनकी क्या उपयोगिता है?
५.भाषा और बोली में क्या अन्तर है?उदहारण सहित समझाइए?
६. मुहावरे और लोकोक्तिओं में अन्तर स्पष्ट कीजिये?
७.स्तम्भ से आप क्या समझते हैं?प्रमुख स्तंभकारों और उनके स्तंभों का वर्णन कीजिये?
८.यात्रा वृतांत और साक्षात्कार का संक्षिप्त वर्णन कीजिये?
९.पत्रकारिता की भाषा कैसी होती है? रेडियो और टीवी के लिए लेखन कैसा होना चाहिए?
१०.फीचर और इन्टरव्यू पर टिपण्णी लिखिए?


(बी जे एम् सी सेकेंड सेमेस्टर के सभी विद्यार्थी कृपया इन सभी प्रश्नों को अच्छी तरह तैयार कर लें,इसके अलावा अनुवाद्के लिए प्रमुख अख़बारों के सम्पादकीय का अनुवाद कर अभ्यास कर लें!परीक्षा की शुभकामनाओं सहित-उमेश पाठक )

शुक्रवार, मई 01, 2009

दर्द जब साथ है....


उमेश पाठक
इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा होगा जो कभी रोया नही हो ,हर इन्सान कभी न कभी आहत या घायल हो कर ,दुःख से घबरा कर ,रोता ज़रूर है!कहते हैं की रोने से दुःख कम हो जाता है,जी हल्का हो जाता है!ये काफी हद तक सच भी है,लेकिन सबसे करीबी मित्र को अपना दुःख बताने पर दुःख बहुत हद तक हल्का हो जाता है और यह अनुभव की बात है!इस संसार के दुखों को देख कर कभी गौतम बुद्ध ने इसे दुखों का सागर कहा था!आसुओं का इन्सान से सबसे करीब का रिश्ता है ! जब मुसीबतें आती हैं तो यार- दोस्त ,सगे सम्बन्धी से पहले आंसू ही आते हैं!हमें कभी भी उन्हें बुलाना नही पड़ता है,वास्तव में ये आंसू दिल की बात कह देते हैं! बिना बोले अभिव्यक्ति का यह सबसे पुराना तरीका है!जिनका दिल मज़बूत होता है वो ही आसुओं को रोक सकतें हैं और आंसू रोकने वाला शख्स हिम्मती और बड़े दिल वाला होता है!
जो अश्क छलक जाए आंखों से,वो अश्क नही है पानी है,
जो आस्क न छलके आंखों से उस अश्क की कीमत होती है!
गुलशन की फकत फूलों से नही ,काँटों में भी जीनत होती है!
जीने के लिए इस दुनियामे गम की भी ज़रूरत होती है!

गुरुवार, अप्रैल 30, 2009

बहुत खूबसूरत हो तुम !


बहूत खूबसूरत हो तुम, बहुत खूबसूरत हो तुम !

कभी मैं जो कह दूं मोहब्बत है तुम से !

तो मुझको खुदाया गलत मत समझना !

के मेरी जरुरत हो तुम, बहुत खूबसूरत हो तुम !

है फ़ुलों की डाली, ये बाहें तुम्हारी !

है खामोश जादू निगाहें तुम्हारी !

जो काटें हों, सब अपने दामन में भर लूं !

सजाउं मैं इनसे ये राहें तुम्हारी !

नज़र से जमाने की खुद को बचाना !

किसी और से देखो दिल न लगाना !

के मेरी अमानत हो तुम !बहुत खूबसूरत हो तुम !

है चेहरा तुम्हारा के दिन है सुनेहरा !

और उस पर ये काली घटाओं का पेहरा !

गुलाबों से नाजु़क मेहकता बदन है !

ये लब है तुम्हारा के खिलता चमन है !

बिखेरो जो जु़ल्फ़ें तो शरमाये बादल !

ये मौसम भी देखे तो हो जाये पागल !

वो पाकीजा़ मूरत हो तुम !बहुत खूबसूरत हो तुम !

मोहब्बत हो तुम, बहुत खूबसूरत हो तुम !

जो बन के कली मुस्कूराती है अक्सर !

शबे हिज्र में जो रुलाती है अक्सर !

जो लम्हों ही लम्हों मे दुनिया बदल दे !

वो पाकीजा़ मुरत हो तुम !बहुत खूबसूरत हो तुम !



( "सिराजे हिंद" कहे जाने वाले शहर जौनपुर के मशहूर शायर ,शायर जमाली की ये ग़ज़ल खूबसूरती को एक अलग अंदाज़ में पेश करती है,आप भी महसूस करिए- उमेश पाठक )

मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

Important Terms in Advertising :Key words

1. Above-the-line cost: A budgeted expenses in television production (e.g., producers, directors, cast, script etc.).2. Account: A general term for the business relationship existing between an advertising agency and its clients. A client of an advertising agency.3. Account conflict: The opposing interests that occur when an advertising agency accepts competing clients.4. Account executive: An executive responsible co-coordinating an account.5. AD: Art director or Assistant director.6. Ad: Advertisement.7. Ad copy: The portions of an advertisement, commercial, or promotional piece.8. Adman: A person working in the advertising industry.9. Below the line cost: Cost that is not included in above-the-line items (e.g. props, transportation, set construction etc.)10. Brand: A graphic symbol, trade name, or combination of both that distinguishes a product or service of one seller from those of others.11. Brand name: A word or group of words, usually trademarked, that identify a product or service.12. Brand image: The pattern of feelings, associations, and ideas held by the public generally in regard to a specific brand. It is also called Brand Personality.13. Promotion: An effort, usually temporary, to create interests in the purchase of a product or service by offering extra values; includes temporary discounts, allowances, premium offers, coupons, contests etc.14. Positioning: It is strategic placement of products, ideas, services in the market to create a distinct brand image in the same segment.15. Segment: A market segment consists of a group of customers who share a similar set of wants.Example: A car company might say that it would target young, middle-income car buyers. The problem is that the young, middle-income buyers will differ about what they want in a car. Some will want a low-cost car and others will want an expensive car. Young, middle-income car buyers is a sector. Young, middle –income car buyers who want a low-cost car is a segment.16. Sponsor: Generally, an advertiser that pays for broadcast time. An advertiser that purchases an entire program.17. Sponsored program: A TV or Radio program paid for by one or more advertisers, as opposed to a sustaining program.18. Sustaining program: A TV or radio program supported by a commercial station or networks, without sponsorship by an advertiser, usually scheduled in the public interests.19. Target Market: A target market is the market segment to which a particular product is marketed.20. Marketing: The business activities that affect the distribution and sales of goods and services from producer to consumer; including product or service development, pricing, packaging, advertising, merchandising, and distribution.21. Brand loyalty: The consistent purchase and use of a specific product by a consumer over a period of time.22. USP: The original and unique benefit claimed for an advertised product or service.23. Slogan: A sentence or phrase used consistently in advertising to identify an advertiser’s product or services.24. Logo: A brand name, publication title, or the like, presented in a special lettering style or typeface and used in the name of a trademark.25. Propaganda: A communication intended to influence, belief and action, whether true or false information is contained in such communication. Ex: Every God-fearing/God-believing person should support us to free the J&K from the oppressions of the Govt. of India.26. Publicity: Information regarding a person, corporation, product etc। released for non-paid use by the mass media; often disguised as news.

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

क्या है ज़िन्दगी?


उमेश पाठक
क्या है ज़िन्दगी?अपने आप में ये बड़ा सवाल है! लगातार जीते चले जाना उतार -चढाव को झेलना या जिंदादिली?जवाब कोई एक नही हो सकता ,ये सारी बातें जिंदगी में शामिल है ,वास्तव में जिंदगी एक फूल के जैसी है,जिसके अलग-अलग हिस्सों में कई रंग होते हैं!अगर उन्हें अलग कर दिया जाए तो उनकी खूबसूरती ख़त्म हो जाती है ,वैसे ही दुःख-सुख ,उतार-चढाव,लाभ-हानि,जीवन-मरण ,खोना-पाना और मिलना-बिछड़ना जिंदगी के रंग हैं!ज़िन्दगी की रौनक सभी रंगों से है!अलग -अलग सभी रंग सुंदर ज़रूर होते हैं लेकिन उनमे इन्द्रधनुष वाली बात नही आती!यही हाल ज़िन्दगी का भी है !सभी रंग मिल कर जिंदगी को "ज़िन्दगी"बनाते हैं!कुछ शायरों की नज़र में जिंदगी-



  • जिंदगी कैसी है पहेली हाय,कभी ये हसाए कभी ये रुलाये .....


  • ज़िन्दगी प्यार का गीत है ,जिसे हर दिल को गाना पड़ेगा...


  • जीवन क्या है ,चलता फिरता एक खिलौना है,आती साँस को पाना जाती साँस को खोना है.....


  • ये जीवन है,इस जीवन का यही है -यही है रंग-रूप....


  • ज़िन्दगी का सफर ,है ये कैसा सफर, कोई समझ नही कोई जाना नही.......

कुल मिला कर सभी रंग ज़िन्दगी में शामिल है और हमें उसे उसी वास्तविक रूप में स्वीकार करना चाहिए,तभी हम जिंदगी को समझ सकते हैं और उसका आनंद ले सकतें हैं!

शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

समेट लो,कुछ दे कर जा रहा है..गुजरता पल !


उमेश पाठक

मिनट ,घंटा ,दिन,महीने, साल गुजरते चले जाते हैं-हम चाहें या न चाहें!सुख-दुःख,अच्छा-बुरा कुछ न कुछ ज़रूर होता है बीते सालों में ,हर किसी के साथ!कभी कोई कड़वी याद हमारा मन कसैला करदेती है तो कभी सुखद दिनों की यादे अपनी बौछारों से हमें भिगो जाती हैं!हर पल हमें आगे बढ़ने के लिए कोई न कोई तरीका ज़रूर बता जाता है,हाँ कभी हम उसे समझ लेते हैं और कभी समझ ही नही पातें!
जब कभी धुप ने शिद्दत से सताया हमको ,याद एक पेड़ का साया बहुत आया हमको! ये सभी अनुभव हमें वास्तव में जीना सीखा देते हैं!जिंदगी से डर-डर के क्या होगा,कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा.वक्त की सच्चाई से रूबरू करातेहैं! कुछ फिल्मी गीत भी काफी महत्व के हैं,वक्त की कीमत और महत्व को बताते कुछ फिल्मी गीत ध्यान देने योग्य हैं-आइये एक नजर डालते हैं-

  • वक्त के सितम कम हसीं नही,आज हैं यहाँ कल कही नही वक्त हैं बड़े अगर मिल गएँ कहीं.....

  • वक्त ने किया क्या हसीं सितम,तुम रहे न तुम हम रहें न हम
  • नदिया चले ,चले रे धारा.....तुमको चलना होगा...
  • आने वाला पल जाने वाला है.....
  • समय ओ धीरे चलो ,बुझ गयी रह की छावं .....
  • ढलता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जाएगा..
  • समय से कौन लड़ा मेरे भाई ...

वक्त ने हमें निकम्मा कर दिया ग़ालिब वरना हम भी आदमी थें काम !मित्रों हम चाहे कितनी भी कोशिश कर लें ,वक्त को रोक नही सकतें,हाँ वक्त के साथ चलने की कोशिश ज़रूर की जा सकती है!ये कोशिश ही हमें उम्मीद की और ले जाती है!

यादें !


उमेश पाठक

जिद थी पागलपन की हद तक,दर्द का दर्पण साथ लिए !

जाने कब हम निकल पड़े थे , ज़ख्मो की सौगात लिए !

मन को बहुत संभाला लेकिन ,दिल के हाथों हार गया ,

यादों की लश्कर का खाली ,आज न कोई वार गया !

कर बैठा मै आत्मसमर्पण ,वक्त से कुछ लम्हात लिए!

रोजी -रोटी की उलझन में,अरमानो का खून हुआ ,

जीवन के इस पथ पर जीना ,जैसे एक जूनून हुआ,

अपने हुए पराये कितने छोटी -छोटी बात लिए!

मन की फुलवारी को कितने ,रिश्तो के अनुबंध मिले ,

"शब्द" नही दे पाए अक्सर ऐसे भी सम्बन्ध मिले ,

महक उठी रिश्तो की कालिया,नाज़ुक एहसासात लिए !

आज की शब् यादो की शब् है,फूल बने है अंगारे ,

यादों की सहराओं में हम ,चलते -चलते ,थक -हारे,

चाँद सरीखे चेहरे आयें ,ग़म की काली रत लिए!

जिद थी पागलपन की हद तक,दर्द का दर्पण साथ लिए !
जाने कब हम निकल पड़े थे , ज़ख्मो की सौगात लिए !



(यादे हर इंसान को अतीत में ले जाती है,लेकिन सामने वर्तमान पुकार रहा होता है,हम वक्त के साथ जीने लगते है ....पर यादें कही न कही से हवा के झोंके सी हमें झकझोर जाती हैं - उमेश पाठक )



सोमवार, अप्रैल 20, 2009

दवा को दर्द की तलाश है!

उमेश पाठक
ऐसा कौन सा इन्सान होगा जिसे दर्द से कष्ट नही मिलता होगा!आदिकाल से ही हम सुखों की चाह में निरंतर दुःख झेलते आ रहे हैं!इस चाह की बजाय अगर दुखो को ही प्यार से अपना लिया जाए तो शायद उनसे मिलने वाली पीडा कम हो जाए! दर्द से परेशान हो कर जब ख़ुद को देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे दर्द का हिस्सा मै ख़ुद हूँ,कुछ समय पहले दर्द मेरा हिस्सा हुआ करता था!हम दर्द से भाग कर दवा की तलाश करते है,लेकिन दवा के बारे में कभी नही सोचते ..कभी -कभी यही दर्द बड़े काम का होता है और सकारात्मक परिणाम भी दे जाता है !दुनिया के सभी महान विभूतियों का जीवन दर्द से भरा रहा है!संसार की सभी मुख्य रचनाये दर्द के कारन ही संभव हो सकीं !
हर एक दर्द को दवा की आस है,
पर अब दवा को भी दर्द की तलाश है!

रविवार, अप्रैल 19, 2009

पहचान का संकट बनाम दिल्ली प्रवास !


उमेश पाठक
यूँ तो हर ओर है बेशुमार आदमी,


फ़िर भी तनहाइओं का का शिकार आदमी !




दिल्ली में एक दुकान पर जहा मेरा लगभग रोज का आना-जाना था ,एक आदमी को अक्सर देखता था!सम्बन्ध केवल एक-दुसरे को देखने का ही था,एक दिन करीब ४ साल के बाद हमारा परिचय होता है और वो व्यक्ति बताता है-मै दिल्ली कोर्ट में जज हूँ " और मै स्तब्ध रह जाता हूँ.सोचता इस शहर के बारे में ......पहचान का संकट कितना बड़ा है यहाँ! करोड़ो कमाने के बाद भी आप एक गुमनाम ज़िन्दगी जीने के लिए अभिशप्त हैं!एक अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा वाचमैन न हो तो सभी सभ्य समाज के लोग जो अपार्टमेन्ट कल्चर के आदि है ,उनको अपनी चिट्ठी पत्री भी न मिले! एक और घटना है-मेरे साथ एक साहब ने तीन साल काम किया फ़िर हमारा संसथान बदल गया,यानि हम अलग -अलग जगह पर काम करने लगे!एक दिन मैंने उनको फोन किया तो उधर से आवाज़ आई-कौन? मैंने परिचय दिया तो उन्होंने कहा क्या काम है? बड़े दुःख ओर क्रोध में मैंने कहा -इस दुनिया में अभी भी कुछ लोग ऐसे है जो मानवता के नाते हाल चाल पूछ लिया करते है,यहाँ तो सारा रिश्ता काम से या काम तक ही है !यह तो एक छोटा सा उदहारण भर है ,देश के सभी मेट्रो शहरों का यही हाल है!छोटे शहरों में ये समस्या इतनी बड़ी नही है,अभी भी लोगों में एक दुसरे के लिए सम्मान (दिखावे के लिए ही सही )बरकरार है !यहाँ दिखावा मात्र भी नही है !पता नही किस गुमान में खोई है हमारी महानगरीय सभ्यता ,जहा इंसान को ढूढने की ज़रूरत पड़ती है !......अफ़सोस फ़िर भी नही मिलता !बशीर बद्र ने ठीक कहा है-


शहर में घर मिले,घरो में तख्तिया ,

तख्तियों पर ओहदे मिलें ,

पर ढूढे से भी ,कोई आदमी नही मिला!

गुरुवार, अप्रैल 16, 2009

रघुकुल के राम !


मिथक राम है-राम नही थे,कल कह दोगे श्याम नही थे !
मेरा मन तो ये कहता है,मिथ रघुकुल के राम नही थे!
सरयू तट का ताना -बना नगर अयोध्या बड़ा पुराना ,
ज्येष्ठ पुत्र रजा दशरथ के ,रामचंद्र का राजघराना!
राम सूर्य थे सूर्यवंश के ,अमर्यादित नाम नही थे!
सदियों लिखा,हाल ने लिखा,जिन्हें हजारो साल ने लिखा,
दौर हरेक हर काल ने लिखा,अल्लामा इक़बाल ने लिखा !
राम इमामे हिंद हुए हैं, धूर्त कहे इमाम नही थे !
लोक ज्ञान निर्वात करेंगे ,शास्त्र ज्ञान की बात करेंगे,
घट -घट में जब राम बसे है,राम पे क्या शास्त्रार्थ करेंगे!
भोतिक सुख पाने वालो में ,अध्यात्मिक आयाम नही थे!
अब ख़ुद से इंसाफ करो मन,ख़ुद से ख़ुद को माफ़ करो मन!
राजनीती से धर्म अलग है,पूर्वाग्रह को साफ करो मन!
आज राम तो कल कह दोगे,पयाम्ब्रे इस्लाम नही थे!
अदि अंत और आज राम हैं,मानस के सिरताज राम हैं!
राम ही मर्यादा पुरोषत्तम,सबके गरीबनेवाज राम हैं!
बिना राम के कोई मनोरथ,भाव कोई निष्काम नही थें!
मिथ रघुकुल के राम नही थे!
मिथ रघुकुल के राम नही थे!

(यह रचना मेरे परम मित्र और कवि डॉ० एन टी खान की सोच का परिणाम है,उनकी संस्तुति से इसे प्रकाशित कर रहा हूँ!कवि डॉ० एन टी खान होमियोपथ के योग्य चिकित्सक है और उत्तर भारत में अपनी काव्य क्षमता से उन्होंने अपनी जगह बनाई है - उमेश पाठक )

सोमवार, अप्रैल 13, 2009

ये इन्कलाब गुज़र जाने दो !

उमेश पाठक
ये इन्कलाब गुज़र जाने दो !
चढा सैलाब उतर जाने दो!
प्यास बुझती नही मैखानों में ,
तुम अपनी यादों के पैमाने दो!
दार पर मुझको चढा दो यारो,
नाम कुछ इश्क में कर जाने दो!
उनसे मिलने की तमन्ना है जवां
लगी है आस ,मगर जाने दो !
अपने बारे में कभी सोचेंगे ,
यादे आयी है चली जाने दो!
कौन अब इश्क यहाँ करता है,
जिस्म मिलते है बस दीवाने "दो"!

मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

दर्द का हद से गुज़रना ही दवा होता है!


इन्सान की ज़िन्दगी में दर्द का बड़ा ही महत्व है.कभी दर्द हमें कमज़ोर करता है तो कभी ताकत भी देता है.बुद्धने अगर इस संसार को दुखमय कहा तो कबीर ने माया !मगर दुःख को सभी ने स्वीकार किया.नियति जब अपनी पर आती है तो भगवान राम होने के बाद भी हमें १४ सालका वनवास काटना पड़ता है.प्रकृति की सभी सुन्दरतम रचनाओं का जन्म दर्द से हो कर ही संभव होता है .
"वियोगी होगा पहला कवि,आह से उपजी होगी प्रथम कविता" ।
सुख और दुःख में एक अंतर्संबंध है,जिसे नकारा नही जा सकता !सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है !
"दुःख के अन्दर सुख की ज्योति,दुःख ही सुख का ज्ञान !
दर्द सह कर जनम लेता , हर कोई इंसान! "
अजीब है दिल का दर्द यारों न हो तो मुश्किल है जीना इसका ,
जो हो तो हर एक दर्द हीरा ,हरेक गम है नगीना इसका !
"ग़ालिब" ने भी इसीलिए कहा है-किसी के सोचने - कहने से क्या होता है,दर्द का हद से गुज़रना ही दवा होता है!

सोमवार, मार्च 30, 2009

बाबूजी के न रहने पर.....


थका हारा इन्सान जब तपती धूप में थक कर किसी घने बरगद की छावं में विश्राम करता है,ऐसे में जो अनुभव होता है वैसा ही पिता के साए का भी अनुभव होता है!सचमुच कितना सुकून मिलता है जब तक सर पर पिता का साया होता हैआज इसे मै बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं !दर्द आंखों में रुक जाए तो वो शक्ति बन जाता है! ऐसे वक्त में ही हमें आंसुओं की कीमत मालूम होती है !थोड़े शब्दों में ही बहुत कुछ कह देने की बाबूजी की बातें अब समझ में आ रही है!बाबूजी की अंत्येष्टि में लोगों की भीड़ देख कर उनकी एक सीख बार-बार याद आ रही थी- "ज़िन्दगी में पैसा थोड़ा कम ही कमाना ,मगर कुछ आदमी ज़रूर कमाना."

(२४.०३.२००९,मंगलवार को बाबूजी के न रहने पर... - उमेश पाठक )

सोमवार, मार्च 23, 2009

रिश्ते !


कभी मन ख़ुद ही खिचता है,
अनायास ही किसी की ओर,
दर्दों में डूबा अकेला एहसास ,
अपने भी जब दूर होने लगें
कभी गैर क्यों लगने लगते है खास
अनचाहा सा एक बोझ, एक त्रासदी ,
बिताई है ऐसे ही कितनी सदी ,
मगर फ़िर भी बंधन हैं,जकड़े हुए ,
मज़बूत तो नही, मगर पकड़े हुए
चाह कर भी उन्हें, तोड़ सकते नही ,
सागर साहिल ,छोड़ सकतें नही
क्योंकि उनमें एक रिश्ता है......
अजीब होते हैं ये रिश्ते भी........
अजीब होते हैं ये रिश्ते भी......!


(रिश्तों के सन्दर्भ में व्यक्तिगत अनुभव की शाब्दिक अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप इस रचना का जन्म हो सका है,रिश्ते व्यक्तिगत अनुभवों से समझे जा सकते है -उमेश पाठक )

सोमवार, मार्च 09, 2009

होली की शुभकामनाएं!

अपनी बात के समस्त पाठकों को होली की शुभकामनाएं!

ज़िन्दगी सभी रंगों से मिलकर बनी है,जिसमे दुःख-सुख,भला-बुरा सभी शामिल है!हमें ज़िन्दगी को उसके इसी वास्तविक रूप के साथ स्वीकार करना है,इसीमे ज़िन्दगी की सार्थकता एवं सफलता निहित है!

गुरुवार, फ़रवरी 26, 2009

कल्पना के हवाई किले बनाने की बनिस्पत मै चाहता हूँ बनाना
विचारों की एक पुलिया जिससे की आदमी -आदमी के बीच के फासले कम हो सकें!

शुक्रवार, फ़रवरी 20, 2009

आशीर्वाद !

जीत लो मन किसी का अपने आचरण से ,
की जैसे गंध मन्दिर वातावरण से!
है आशीष का मूल्य होता बहुत ,
लोग देते नही अंतःकरण से!

        *******
कल्पना के हवाई किले बनाने की बनिस्पत मै चाहता हूँ बनाना विचारों की एक पुलिया जिससे की आदमी -आदमी केबीच के फासले कम हो सकें!