बुधवार, सितंबर 15, 2010

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय :देवदास के कालजयी रचयिता

-उमेश पाठक
(आज शरतचंद्र के जन्मदिवस पर उनको याद करते हुए आइये जानते हैं उनकी रचनाओं और जीवन की प्रमुख घटनाओं के बारे में !देवदास उनकी सर्वाधिक प्रसीद्ध एवं चर्चित पुस्तक है जिस पर चार बार फ़िल्में बन चुकी हैं!सही कहा है की क्लासिक मरते नहीं हमेशा मौजूद रहतें हैं ! )

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय (१५ सितंबर, १८७६ - १६ जनवरी, १९३८ ) बांग्ला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार थे। उनका जन्म हुगली जिले के देवानंदपुर में हुआ। वे अपने माता-पिता की नौ संतानों में से एक थे। अठारह साल की अवस्था में उन्होंने इंट्रेंस पास किया। इन्हीं दिनों उन्होंने "बासा" (घर) नाम से एक उपन्यास लिख डाला, पर यह रचना प्रकाशित नहीं हुई। रवींद्रनाथ ठाकुर और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। शरतचन्द्र ललित कला के छात्र थे लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वह इस विषय की पढ़ाई नहीं कर सके। रोजगार के तलाश में शरतचन्द्र बर्मा गए और लोक निर्माण विभाग में क्लर्क के रूप में काम किया। कुछ समय बर्मा रहकर कलकत्ता लौटने के बाद उन्होंने गंभीरता के साथ लेखन शुरू कर दिया। बर्मा से लौटने के बाद उन्होंने अपना प्रसिद्ध उपन्यास श्रीकांत लिखना शुरू किया।बर्मा में उनका संपर्क बंगचंद्र नामक एक व्यक्ति से हुआ जो था तो बड़ा विद्वान पर शराबी और उछृंखल था। यहीं से चरित्रहीन का बीज पड़ा, जिसमें मेस जीवन के वर्णन के साथ मेस की नौकरानी से प्रेम की कहानी है। जब वह एक बार बर्मा से कलकत्ता आए तो अपनी कुछ रचनाएँ कलकत्ते में एक मित्र के पास छोड़ गए। शरत को बिना बताए उनमें से एक रचना "बड़ी दीदी" का १९०७ में धारावाहिक प्रकाशन शुरु हो गया। दो एक किश्त निकलते ही लोगों में सनसनी फैल गई और वे कहने लगे कि शायद रवींद्रनाथ नाम बदलकर लिख रहे हैं। शरत को इसकी खबर साढ़े पाँच साल बाद मिली। कुछ भी हो ख्याति तो हो ही गई, फिर भी "चरित्रहीन" के छपने में बड़ी दिक्कत हुई। भारतवर्ष के संपादक कविवर द्विजेंद्रलाल राय ने इसे यह कहकर छापने से इन्कार कर दिया किया कि यह सदाचार के विरुद्ध है। विष्णु प्रभाकर द्वारा आवारा मसीहा शीर्षक रचित से उनका प्रामाणिक जीवन परिचय बहुत प्रसिद्ध

प्रमुख कृतियाँ

शरत्चंद्र ने अनेक उपन्यास लिखे जिनमें पंडित मोशाय, बैकुंठेर बिल, मेज दीदी, दर्पचूर्ण, श्रीकांत, अरक्षणीया, निष्कृति, मामलार फल, गृहदाह, शेष प्रश्न, दत्ता, देवदास, बाम्हन की लड़की, विप्रदास, देना पावना आदि प्रमुख हैं। बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर "पथेर दावी" उपन्यास लिखा गया। पहले यह "बंग वाणी" में धारावाहिक रूप से निकाला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया। शरत के उपन्यासों के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। कहा जाता है कि उनके पुरुष पात्रों से उनकी नायिकाएँ अधिक बलिष्ठ हैं। शरत्चंद्र की जनप्रियता उनकी कलात्मक रचना और नपे तुले शब्दों या जीवन से ओतप्रोत घटनावलियों के कारण नहीं है बल्कि उनके उपन्यासों में नारी जिस प्रकार परंपरागत बंधनों से छटपटाती दृष्टिगोचर होती है, जिस प्रकार पुरुष और स्त्री के संबंधों को एक नए आधार पर स्थापित करने के लिए पक्ष प्रस्तुत किया गया है, उसी से शरत् को जनप्रियता मिली। उनकी रचना हृदय को बहुत अधिक स्पर्श करती है। पर शरत्साहित्य में हृदय के सारे तत्व होने पर भी उसमें समाज के संघर्ष, शोषण आदि पर कम प्रकाश पड़ता है। पल्ली समाज में समाज का चित्र कुछ कुछ सामने आता है। महेश आदि कुछ कहानियों में शोषण का प्रश्न उभरकर आता है। उनके कुछ उपन्यासों पर आधारित हिन्दी फिल्में भी कई बार बनी हैं। इनके उपन्यास चरित्रहीन पर आधारित १९७४ में इसी नाम से फिल्म बनी थी। उसके बाद देवदास को आधार बनाकर देवदास फ़िल्म का निर्माण तीन बार हो चुका है। पहली देवदास कुन्दन लाल सहगल द्वारा अभिनीत, दूसरी देवदास दिलीप कुमार, वैजयन्ती माला द्वारा अभिनीत तथा तीसरी देवदास शाहरुख़ ख़ान, माधुरी दीक्षित, ऐश्वर्या राय द्वारा अभिनीत। इसके अतिरिक्त १९७४ में चरित्रहीन, परिणीता-१९५३ और २००५ में भी , बड़ी दीदी (१९६९) तथा मँझली बहन, आदि पर भी चलचित्रों के निर्माण हुए हैं।


बुधवार, सितंबर 01, 2010

मीडिया एजुकेशन का बढ़ता दायरा


वर्तमान में नेट पर भारत के मीडिया संस्थानों की सूची तलाश करने पर 18 लाख से ज्यादा नतीजे दिखाई देते हैं। इनमें सरकारी संस्थान कम और निजी ज्यादा दिखाई देते हैं। यह भीड़ कुछ ऐसी है कि लगता है जैसे पत्रकार बनाने वाली फैक्टरियों की भीड़ ही जमा हो गई हो। वहीं एमबीए इंस्टीट्यूट की तलाश करने पर छह लाख के करीब नतीजे दिखते हैं। मतलब यह कि मीडिया संस्थानों की पहुंच, पूछ और पहचान बढ़ रही है। पिछले दशक में यह संख्या काफी बढ़ी है!ग्लैमर और आकर्षण इस तरफ नयी पीढ़ी का ध्यान लगातार खींच रहें हैं!

इसी साल देश के सर्वोच्चतम माने जाने वाले मीडिया इंस्टीट्यूट भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC)को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। इसी तरह दिल्ली के पांच कॉलेजों- लेडी श्रीराम, कमला नेहरू, अग्रसेन, दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड कॉमर्स, कालिंदी कॉलेज में अंग्रेजी में पत्रकारिता को स्नातक स्तर पर पढ़ाया जा रहा है और हिंदी में चार कॉलेजों अदिति महाविद्यालय, भीमराव आंबेडकर कालेज, राम लाल आनंद, गुरुनानक देव खालसा कॉलेज में पत्रकारिता के स्नातक स्तर की पढ़ाई हो रही है।

यानी दिल्ली में मीडिया के अध्ययन का भरपूर माहौल तैयार हो चुका है और सरकारी कोशिशें भी काफी हद तक संतोषजनक ही रही हैं। इसके बावजूद दिल्ली में निजी संस्थानों भी एक के बाद एक खुलते गए हैं। दिल्ली से सटे एनसीआर क्षेत्र में पत्रकारिता की कई दुकानें खुली हैं और उनमें से ज्यादातर ने कहीं न कहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से ही बड़े सबक उठाए हैं। सरकारी कॉलेजों की तुलना में इनमें से कुछ भले ही दर्शनीय और आकर्षक ज्यादा हों, लेकिन गुणवत्ता के मामले में ये खुद को साबित नहीं कर पाए हैं।

दरअसल, भारत में मीडिया शिक्षण मोटे तौर पर छह स्तरों पर होता है- सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में विश्वविद्यालयों से संबद्ध संस्थानों में, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में पूरी तरह से निजी संस्थानों में, डीम्ड विश्वविद्यालयों में और किसी निजी चैनल या समाचारपत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान में।

इनमें सबसे कम दावे सरकारी संस्थान करते हैं और दावों की होड़ में जीतते हैं निजी संस्थान। लेकिन विश्वसनीयता के मामले में बात एकदम उल्टी है। अब भारत में 125 डीम्ड विश्वविद्यालय खुल गए हैं। इनमें से 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान हैं। यहां भी शिक्षण संबंधी मूलभूत नियमों की अनदेखी की शिकायतें आती रही हैं। यही वजह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यभार संभालते ही कपिल सिब्बल ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल कर चुके सभी शिक्षण संस्थानों के कामकाज की समीक्षा के आदेश दे दिए।

उधर निजी चैनलों के कुछ संस्थान पहले तो चयन ही ऐसे छात्रों का करते हैं जो उनके चैनल के लिए पूरी तरह से उपयुक्त दिखते हों। इनमें ऊंची पहुंच वालों के बच्चों को तरजीह मिलती है। इनमें से कई संस्थान जो सर्टिफिकेट देते हैं, वह चैनल में तो चलता है लेकिन कहीं और नहीं। यहां किसी विश्वविद्यालय से संबद्ध डिग्री देने का प्रावधान नहीं होता है।

मसला यह भी है कि इन संस्थानों में पढ़ाता कौन है (क्या पढ़ाया जाता है, यह एक अलग मसला है)। सरकारी संस्थानों में इस साल से यूजीसी के निर्देशों का पालन अनिवार्य कर दिया गया है, यानी इन संस्थानों में अब वही शिक्षक नौकरी पा सकेंगे जो गुणवत्ता के स्तर पर कहीं से भी कम नहीं होंगे, क्योंकि नेट की परीक्षा को पार करना आसान नहीं।

ऐसे में अक्सर गेस्ट फैकल्टी को बुलाने की कोशिश होती है। ज्यादातर सरकारी कॉलेजों में आज भी अतिथि वक्ता को एक घंटे के लेक्चर के लिए 500 से 750 रुपए ही दिए जाते हैं। ऐसे में या तो लोग आते नहीं और अगर आ भी जाते हैं तो शिक्षण में अनुभवहीनता और अरुचि के चलते अपनी सफलता के किस्से सुनाकर चलते बनते हैं।

निजी संस्थानों में अब भी नेट अनिवार्य नहीं दिखती। नतीजा यह हुआ है कि या तो उनके पास वही शिक्षक रह जाते हैं जिनकी जानकारी अस्सी के दशक से आगे नहीं बढ़ी है अथवा वे जो मीडिया में हैं लेकिन पढ़ाने की कला नहीं जानते। ऐसे लोग कक्षाओं में किस्सागोई तो कर लेते हैं, लेकिन छात्रों के ज्ञान को विस्तार नहीं दे पाते।

ऐसे में मीडिया शिक्षा सिर खुजलाती दिखती है। युवा पत्रकार बनना चाहते हैं, वह भी जल्दी में। ऐसे में पत्रकारिता करना मैगी नूडल्स बनाने जैसा काम हो गई है। बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिस फसल को रातोंरात बड़ा किया गया था, वह कीटनाशकों के अभाव में खराब निकली। क्या कुछ समय के लिए फोकस मीडिया के बढ़ते बाजार के बजाय योग्य शिक्षकों की खोज और उनके प्रशिक्षण पर किया जा सकता है?

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

अदम गोंडवी की ग़ज़ल!


- उमेश पाठक

आज ज़ब हम इंसान को खांचों में देखने के आदि हो चुके हैं,पूर्वाग्रह में जीते हैं, ऐसे में इंसानियत को बचाना बड़ा ही मुश्किल लगता है! हमारे मुल्क में समय-समय पर कवियों/शायरों/लेखकों ने इस बारे में लिखा है! नक्सलवाद,आतंकवाद,माओवाद और कुछ नहीं तो राजनीतिक विवाद के इस दौर में में हम खुद तो जैसे तैसे जी ले रहे हैं मगर आने वाली पीढ़ियों के सामने हम क्या मिसाले रख रहें हैं ? इस मसले पर सोचने की ज़रूरत है! नयी पीढ़ी को कुछ नहीं तो कम से कम एक ज़हर भरा समाज तो न मिले और ये कोशिश हमारे आपके परिवार से ही शुरू हो सकती है ! पेश है इसी सामयिक विषय पार जमीन से जुड़े शायर अदम गोंडवी की ग़ज़ल जिनकी मशहूर लाइने हैं- फटी धोती में नँगे पांव कोई ,जहां गुजरता हो,समाझ लेना सडक वो ही अदम के गावं जाती है !


हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये,

अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये !

हममें कोई हूण , कोई शक , कोई मंगोल है ,

दफ़्न है जो बात , अब उस बात को मत छेड़िये !

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं ; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर , हलाकू , जार या चंगेज़ ख़ाँ ,

मिट गये सब ,क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये!

छेड़िये इक जंग , मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़,

दोस्त , मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये !


शनिवार, अगस्त 14, 2010

आज़ादी का मतलब जिम्मेदारी है !




- उमेश पाठक
आप किसी चीज के बारे में लगातार पढ़ते रहे हों, फिर भी उसे सच्चे अर्थों में तभी समझ सकते हैं, जब आप उसे अनुभव करें। मसलन, हम रोज बलात्कार, हादसों आदि के बारे में पढ़ते हैं। पर, हमें दर्द का अहसास तभी होता है जब हमारे किसी करीबी के साथ ऐसा कुछ होता है। तो आजादी की लड़ाई की कहानी किताबों में पढ़ कर और फिल्मों में देख कर बड़ी हुई यह पीढ़ी कभी इस लड़ाई की गंभीरता महसूस कर सकती है, मुझे यकीन नहीं होता। वे इसे समझें या महसूस करें, ऐसी उम्मीद पालना भी ठीक नहीं होगा

संघर्ष हमें जिम्‍मेदारी का अहसास कराता है, क्‍योंकि हम उसका महत्‍व समझ पाते हैं, जो हमारे पास है। जब मैं बच्चा था तो मुझे हर आफत से बचाया जाता था। अगर मैं गिरता तो मां-पिताजी दौड़ कर आते, मुझे उठाते, शरीर में लगी धूल झाड़ते और समझाते कि फर्श पर चींटी थी जिसने मुझे गिराया। मेरे गिरने में कभी मेरी गलतीनहीं होती थी। मुझे यह समझने में थोड़ा वक् लगा कि दरअसल मैं अपनी गलती की वजह से गिरा करता था। मैंइसलिए गिरता था, क्योंकि मैं लापरवाही करता था।‍ ‍ ‍

हम अपने दोस्तों, करीबियों और परिवार वालों के साथ भी यही करते हैं। जब कोई गलती होती है तो कुछ ऐसा कारण बताते हैं जो हमारे वश में नहीं होता। सामने वाले की गलती थी या वह लापरवाही बरत रहा था। पर सच यह है कि आप जो कुछ भी करते हैं, उसके लिए आप ही जिम्मेदार होते हैं। हम अपने बच्चे को यह बताते हुए बड़े करते हैं कि उसकी गलती नहीं है और एक दिन हम उसी से उम्मीद पाल बैठते हैं कि वह जिम्मेदारी उठाए। हम यह नहीं समझ पाते कि हमने उसे कभी जिम्‍मेदारी का अहसास कराया ही नहीं। यही कारण है कि वह इसी सोच के साथ बड़ा होता है कि वह गलत हो ही नहीं सकता।

जिम्मेदारी की शुरुआत बचपन से ही होती है। अगर हम उसे शुरू से ही गलती के लिए जिम्मेदार नहींबताएंगे तो वह कभी जिम्मेदारी लेना नहीं सीखेगा। आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आगे चलकर अपनी सोच, व्यवहार बदल कर अचानक जिम्मेदार हो जाएगा।‍‍ ‍‍ ‍‍


जिम्मेदारी का अहसास किए बिना आजादी का कोई मतलब नहीं है। जिम्मेदारी के अहसास का मतलब यहसमझना है कि आप क्या कर सकते हैं और आपको क्या करना चाहिए। इसका मतलब यह समझना है कि आपखुद के प्रति जवाबदेह हैं। हर चीज की तरह यह भी ऐसी चीज है, जो आदमी वक् और अनुभव के साथ सीखता है।बशर्ते उसे सही रास्ता दिखाया जाए। ऐसा नहीं कि उसे पिंजड़े में रखा जाए और फिर अचानक एक दिन उड़ने केलिए कह दिया जाए। वह नहीं उड़ पाएगा और उड़ा भी तो गलत दिशा में उड़ जाएगा, क्योंकि कभी उसे इस बारे मेंआगाह किया ही नहीं गया है। सो, अगर वह जिम्मेदार नहीं है तो आजादी का मतलब नहीं समझेगा। तो जिसनेसंघर्ष नहीं किया है, उससे आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आजादी के सही मायने समझे।‍‍ ‍‍ ‍ ‍ ‍ ‍ ‍

आजादी का मतलब है कि आप जो कर रहे हैं, उसके लिए केवल खुद को ही जिम्‍मेदार मानिए। और अगर कोई अपनी आजादी का मतलब नहीं समझता है तो उससे देश की आजादी का मतलब समझने की उम्‍मीद करना बेमानी है।

सीता रावन राम का करे विभाजन लोग,

एक ही तन में देखिये तीनो का संजोग !


जब तक हम इसे हर दिन अपनी जिंदगी की छोटी-छोटी बातों में नहीं आजमाएंगे, तब तक हर किसी को आजादीके मतलब समझाने का कोई फायदा नहीं है। हम जो काम रोज करते हैं, जो फैसले लेते हैं, उसके लिए जिम्मेदारीउठाना शुरू करें। इसकी शुरुआत अपने घर से ही करें तो यकीनन हम हर किसी को आजादी और इसके लिए लड़ीगई लड़ाई की गंभीरता का अहसास करा सकते हैं।

गुरुवार, अगस्त 05, 2010

किशोर कुमार :जिंदगी का सफ़र......

- उमेश पाठक
किशोर कुमार ! एक ऐसा कलाकार जिसे शुरू में गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन उस कलाकार ने बाद में सभी संगीतप्रेमियों को गंभीरता से न केवल सोचने प़र मजबूर किया ......बल्कि अपनी गंभीरता से गंभीर भी कर दिया ! बहुमुखी प्रतिभा के धनी महान कलाकार हैं-किशोर दा ! ४ अगस्त को सारा हिंदुस्तान उनके जन्मदिन प़र याद करता है लेकिन ऐसा लगता है की वो अपनी आवाज़ से कला से और अपने खास अंदाज़ से हमारे बीच आज भी मौजूद हैं ! किशोर दा के बारे में कुछ फ़िल्मी हस्तियों के विचार-

Often called a genius, he held sway over bollywod playback music for two decades and is remembered to this day for his ability "to create drama through singing". August 4th, 2009 MUMBAI - Subhash Ghai

Kumar has left behind a huge legacy of music. And he continues to inspire youngsters to be individualistic. Young female singers speak about how Kishore has influenced them and the one Kishore-song they would love to re-sing. -Sunidhi Chauhan

किशोर कुमार बेहतरीन गायक थे, शानदार अभिनेता थे, निर्माता थे, निर्देशक थे... वे वास्तव में एक ऑलराउंडर थे. बहुमुखी प्रतिभा के धनी किशोर कुमार की आज 81वीं जयंति है. इस अवसर पर प्रस्तुत है उनके जीवन से जुडी कुछ रोचक बातें:
किशोर कुमार का जन्म 4 अगस्त 1929 को मध्यप्रदेश के खांडवा में हुआ था।
उनकी मृत्यु 13 अक्टूबर 1987 को मुम्बई में हुई
उन्होनें चार विवाह किए थे -
रूमा गुहा (1951 से 1958: बाद में तलाक)
मधुबाला (1961 से 1969: बाद में मधुबाला की मृत्यु)
योगिता बाली (1976 से 1978: बाद में तलाक)
लीना चन्दावरकर (1980 से 1987: बाद में किशोर कुमार की मृत्यु)
उनकी पहली फिल्म आंदोलन थी (1951)
उनकी पहली हिट फिल्म नौकरी थी (1954)
उन्होने गायकी के लिए कई फिल्मफेयर अवार्ड जीते
उन्होनें लता मंगेशकर के साथ मिलकर 327 गाने गाए थे. उनसे अधिक गाने मात्र मो. रफी ने गाए थे
बॉलीवुड में इलैक्ट्रिक संगीत लाने का श्रेय उनको जाता है।
किशोर कुमार की आवाज़ कभी अमिताभ बच्चन के ही लिए बनी है ऐसा कहा जाता था. बाद में दोनों में मतभेद हो गए और किशोर कुमार ने कहा था कि वे अब कभी अमिताभ के लिए आवाज नही देंगे।
किशोर कुमार का मशहूर "योडली" प्रभाव उनके भाई अनूप कुमार के एक ऑस्ट्रेलियन रिकार्ड से लिया गया था।
उनको एल्फ्रेड हिचकॉक की फिल्में बहुत पसंद थी। उनके पिता पेशे से वकील थे। उन्होनें अपने दोनों भाईयों अशोक कुमार और अनूप कुमार के साथ एक फिल्म चलती का नाम गाड़ी में साथ काम किया था।

गुरुवार, जुलाई 01, 2010

नियति !






यह चलती रोज मचलती है,
द्रुत गति है इसकी तेज बहुत ,
हर -पल यह रूप बदलती है!
कभी भर देती दामन तेरा ,
कभी हर-पल तुझको छलती है!
धरती पर मानव कि देखो ,
होती इससे गति-दुर्गति है,
प्रारब्ध,भाग्य विधि रेख कहो,
बस इसी का नाम तो
नियति है !

-
उमेश

{जीवन में होने वाले अच्छे-बुरे अनुभवों ,चढाव-उतराव आदि से हम नियति को भी महसूस करते हैं! सबके जीवन में इसका एक अहम् रोल है ,थोड़े से अंतर से ज़ब कभी कोई काम बनता या बिगड़ता है तो नियति वहां अस्तित्व में आ जाती है ! यह नियति का ही कमल है कि भगवन राम होने के बाद भी हमें १४ साल जंगल में बिताना होता है !}

सोमवार, जून 14, 2010

मुझे चाँद चाहिए :आत्मविश्वास की गाथा


-उमेश पाठक

पश्चिमी दार्शनिक हईड़ेगर ने कहा था - मनुष्य इस संसार में एक फेंकी हुयी सत्ता है कभी -कभी जिंदगी के थपेड़ों को महसूस करने के बाद उसकी ये बात सच प्रतीत होती है!कभी हम इतने मजबूर होतें हैं कि जो निर्णय नियति लेती है उसे स्वीकार करने के अलावा हमारे पास दूसरा कोई चारा नहीं होता !जीवन में हर कोई बड़ा बनना चाहता है मगर बड़ा बनाना आसान तो नहीं !बड़ा बनने के लिए बड़ी सोच के साथ आत्मविश्वास का होना ज़रूरी है ! स्वाभिमान ,कठिन परिश्रम और लम्बे समय तक संघर्ष करने की दृढ ईक्षा ही अम्बिशन को पूरा करने में सहायता करती है !जब जीवन का यह सार या सूत्र समझ में जाता है तो लक्ष्य तक पहुचना आसान हो जाता है अन्यथा हम आने वाली समस्याओं में ही उलझे रहते हैं !

ऐसी ही एक आत्मविश्वासी लड़की कि संघर्ष गाथा है उपन्यास- मुझे चाँद चाहिए ! सुरेन्द्र वर्मा का यह उपन्यास बड़े कथानक का है और इसमें बहुत सारे पात्र हैं लेकिन मुख्य पात्र का संघर्ष और आत्मविश्वास प्रेरक है !कथा की मुख्य पात्र सिलबिल उर्फ़ वर्षा वशिष्ठ हमारे आस-पास कि ही लगती है और उसके सुख-दुःख अपने लगते हैं ! पूरा उपन्यास थियेटर और सिनेमा कि दुनिया पार आधारित है दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ) के बारे में इतनी विषद और व्यापक जानकारी हो जाती है कि आप यह महसूस करने लगते हैं कि मै भी इसमें पढ़ चुका/चुकी हूं !
आत्म्विशस से लबरेज कुछ पंक्तियाँ देखिये-

"...अचानक मुझमें असंभव के लिए आकांक्षा जागी। अपना यह संसार काफी असहनीय है, इसलिए मुझे चंद्रमा, या खुशी चाहिए-कुछ ऐसा, जो वस्तुतः पागलपन-सा जान पड़े। मैं असंभव का संधान कर रहा हूँ...देखो, तर्क कहाँ ले जाता है-शक्ति अपनी सर्वोच्च सीमा तक, इच्छाशक्ति अपने अंतर छोर तक ! शक्ति तब तक संपूर्ण नहीं होती, जब तक अपनी काली नियति के सामने आत्मसमर्पण न कर दिया जाये। नहीं, अब वापसी नहीं हो सकती। मुझे आगे बढ़ते ही जाना है... .."

ये उपन्यास शाहजहाँपुर की एक आम निम्नमध्य वर्गीय किशोरी सिलबिल के अपने छोटे शहर के दकियानूसी परिवेश से निकल कर दिल्ली के रंगमंच में अभिनय सीखने और फिर मुंबई के सिने जगत में एक काबिल और स्थापित अभिनेत्री बनने की संघर्ष गाथा है।अपनी पूरी जीवन यात्रा में वह भारत के उस निम्न मध्य वर्ग की लड़की का प्रतिनिधित्व करती है जो भारत के अधिकांश छोटे कस्बों के घरों में बसती है !
सिलबिल के चरित्र के कई आयाम हैं। सिलबिल अपने जीवन की नियति से दुखी है। अपने परिवेश से निकलने की छटपटाहट है उसमें। नहीं तो वो घरवालों से बिना पूछे अपना नाम यशोदा शर्मा से वर्षा वशिष्ठ क्यूँ करवाती? अपनी शिक्षिका की मदद से रंगमंच से जुड़ने वाली सिलबिल, अपने पहले मंचन में सफलता का स्वाद चख इसे ही अपनी मुक्ति का मार्ग मान लेती है और अपनी सारी शक्ति अपनी अभिनय कला को और परिपक्व और परिमार्जित करने में लगा देती है। यही किसी के भी जीवन की सफलता का मूल मन्त्र भी है !

जीवन के नए अनुभवों से गुजरने में वर्षा वशिष्ठ को कोई हिचकिचाहट नहीं, चाहे वो उसके बचपन और किशोरावस्था के परिवेश और मूल्यों से कितना अलग क्यूँ ना हो।ये नए अनुभव ही तो व्यक्ति को परिपक्वता प्रदान करतें हैं और आत्मविश्वास भी बाधा जातें हैं ! बल्कि इनका आनंद लेने की एक उत्कंठा है उसमें। पर उसके व्यक्तित्व की विशेषता ही यही है कि ये अनुभव उसे अपने अंतिम लक्ष्य से कभी नहीं डिगा पाते।जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ,मानवीय संघर्ष कि गाथा को जानने के लिए इस उपन्यास को एक बार अवश्य पढना चाहिए ! नाटक ,थियेटर और कला से जुड़े लोगों के लिए तो यह बहुत ही सहायक पुस्तक है !