शुक्रवार, अप्रैल 24, 2009

यादें !


उमेश पाठक

जिद थी पागलपन की हद तक,दर्द का दर्पण साथ लिए !

जाने कब हम निकल पड़े थे , ज़ख्मो की सौगात लिए !

मन को बहुत संभाला लेकिन ,दिल के हाथों हार गया ,

यादों की लश्कर का खाली ,आज न कोई वार गया !

कर बैठा मै आत्मसमर्पण ,वक्त से कुछ लम्हात लिए!

रोजी -रोटी की उलझन में,अरमानो का खून हुआ ,

जीवन के इस पथ पर जीना ,जैसे एक जूनून हुआ,

अपने हुए पराये कितने छोटी -छोटी बात लिए!

मन की फुलवारी को कितने ,रिश्तो के अनुबंध मिले ,

"शब्द" नही दे पाए अक्सर ऐसे भी सम्बन्ध मिले ,

महक उठी रिश्तो की कालिया,नाज़ुक एहसासात लिए !

आज की शब् यादो की शब् है,फूल बने है अंगारे ,

यादों की सहराओं में हम ,चलते -चलते ,थक -हारे,

चाँद सरीखे चेहरे आयें ,ग़म की काली रत लिए!

जिद थी पागलपन की हद तक,दर्द का दर्पण साथ लिए !
जाने कब हम निकल पड़े थे , ज़ख्मो की सौगात लिए !



(यादे हर इंसान को अतीत में ले जाती है,लेकिन सामने वर्तमान पुकार रहा होता है,हम वक्त के साथ जीने लगते है ....पर यादें कही न कही से हवा के झोंके सी हमें झकझोर जाती हैं - उमेश पाठक )



2 टिप्‍पणियां:

  1. उमेश जी,बहुत ही बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

    जिद थी पागलपन की हद तक,दर्द का दर्पण साथ लिए !
    जाने कब हम निकल पड़े थे , ज़ख्मो की सौगात लिए !
    मन को बहुत संभाला लेकिन ,दिल के हाथों हार गया ,
    यादों की लश्कर का खाली ,आज न कोई वार गया !

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