गुरुवार, अक्तूबर 25, 2018

मैं भाषा हूँ ।












इंसान ने गढ़ा मुझको

सदियों से मैं आवाज बनी,

बिल्कुल.एेसे ना थी पहले,

जैसी हूँ मैं अाज बनी

सभी बोलियाँ बहने मेरी

मुझमें ही मिल जाती हैं।

आज मगर देखो तो उनकी

संख्या घटती  जाती है ।

प्रेम,मान-अपमान हूँ मैं,

कविता, मन की अभिलाषा हूँ,

पहचानो मुझसे प्यार करो ,

मैं भाषा हूँ । मैं भाषा हूँ ।


उमेश पाठक, दिल्ली, 25/10/2018

शुक्रवार, फ़रवरी 17, 2017

जेल में ज्यादा सुखी हैं ओम प्रकाश चौटाला

जेल में ज्यादा सुखी हैं ओम प्रकाश चौटाला

इनेलो सुप्रीमो बोले- अच्छा खाता हूं, टीवी देखता हूं और चैन से सोता हूं!

' मेरी चिंता न करें। मैं तो जेल में ज्यादा सुखी हूं। समय पर अच्छा खाना, टीवी देखना और चैन की नींद लेना मेरी दिनचर्या है। जेल में होने के कारण घरवाले अच्छा भोजन भेजते हैं। इसलिए पहले से ज्यादा फिट हूं।'  इंडियन लोकदल (इनेलो) सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला का यह बयान आज जिस समय मुझे मिला, मैं अखबारों में शशिकला के जेल जीवन की शुरुआत के किस्से पढ रहा था।  तमिलनाडु में मुख्यमंत्री बनने के सपने देखते देखते 4 साल के लिए जेल भेज दी गई शशिकला के बारे में खबर है कि उन्होंने कर्नाटक की  जेल में बीती दो रातें चटाई पर सोकर बिताईं, उन्हें अगरबत्ती मोमबत्ती बनाने का काम दिया गया है जिसके एवज में उनके कैदी खाते में हर दिन 50 रुपये की दिहाड़ी मजदूरी जमा होगी (यदि मेहनत से पूरा काम करेंगी)। शशिकला पर आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप है और उन्हें सश्रम कारावास के साथ ही जेल की रूखी सूखी खाने का आदेश कोर्ट ने दे रखा है। घर का खाना मना कर दिये जाने के कारण जेल की रोटियां किसी तरह निगल रही हैं जयललिता की सखी शशिकला।
दिल्ली हरियाणा में नेताओं की इज्जत की तमिलनाडु कर्नाटक में नेताओं के साथ जेलवालों के व्यवहार की तुलना करना ठीक नहीं। वह दक्षिण (राइट वाला नहीं साउथ वाला) है और हरियाणा दिल्ली के उत्तर में है।

फिलहाल बात सिरसा में चौटाला की सभा के बाबत। श्री चौटाला ने आज सिरसा में पार्टी कार्यकर्ताओं से मुलाकात के दौरान बयां किया जेल में ज्यादा सुखी रहने वाला अनुभव। चौटाला ने कहा, 'राजनीति के वर्तमान हालात में तो अखबार पढ़ने तक का समय नहीं मिलता। मेरी तो जेल में मौज है। वहां खुले पार्क हैं। राजनीतिक सीरियल के साथ-साथ हनुमान, सिया के राम, अशोक, चंद्र गुप्त, बाजीराव आदि धारावाहिक भी देखता हूं।'
इससे पहले रविवार को हिसार में ओम प्रकाश चौटाला ने कहा था कि  उनकी गलती से ही भाजपा सत्ता में आ गई। उन्होंने कहा कि अगर वे 2 दिन और सरैंडर नहीं करते तो क्या भाजपा आती। ओमप्रकाश चौटाला ने खुद को बिल्कुल फिट बताते हुए कार्यकत्र्ताओं से कहा कि जेल में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। मजे से सोते हैं। अखबार पढ़ते हैं तथा टैलीविजन पर तमाम कार्यक्रम देखते हैं।

शिक्षक भर्ती घोटाला में 10 साल की सजा भुगत रहे हैं चौटाला पितापुत्र और कई  आईएएस अफसर। चौधरी देवीलाल के पुत्र और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओपी चौटाला छह फरवरी से तीन हफ्ते की पैरोल पर जेल से बाहर हैं और जगह-जगह कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं। चौटाला के पुत्र अजय चौटाला भी इसी कांड में दोषी पाए गए थे और पितापुत्र दोनो दिल्ली के तिहाड़ जेल में सजा काट रहे हैं। तिहाड़ दिल्ली में है और किसी सजायाफ्ता कैदी को पैरोल पर छोड़ने में सरकार की सहमति जरूरी होती है। कई बार पैरोल का विरोध करने के बाद इस बार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दया करके पैरोल का मुखर विरोध नहीं किया तो पूर्व मुख्यमंत्री ओपी चौटाला को पैरोल मिल गई है किंतु पुत्र अजय चौटाला जेल में ही हैं। श्री ओम प्रकाश चौटाला को भी इस महीने के आखिरी दिन वापस तिहाड़ जेल जाना होगा और उनकी होली जेल में बीतेगी।

हमें थाली में मिलेगी सरकार

पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने कहा कि हमें भविष्य में सत्ता थाली में परोसी हुई मिलेगी।  इनेलो की चर्चा देश ही नहीं विदेश में भी हो रही है।

साभार :डॉ उपेन्द्र पाण्डेय ,ट्रिब्यून चंडीगढ़ .

रविवार, अक्तूबर 21, 2012

।।समय से संवाद।।


एक उल्लेखनीय काम के लिए अरविंद केजरीवाल को क्रेडिट (श्रेय) मिलना चाहिए. पर भारतीय राजनीति या सार्वजनिक बहस में यह मुद्दा है ही नहीं. लालू प्रसाद का बयान (गडकरी पर अरविंद केजरीवाल की प्रेस कान्फ्रेंस के बाद) आया कि सब दलों को मिल कर केजरीवाल को जेल में डाल देना चाहिए. मुलायम सिंह यादव भी, सलमान खुर्शीद और नितिन गडकरी के पक्ष में खड़े हो गये हैं. तीन दिनों पहले उन्होंने लखनऊ में फरमाया, इनको (केजरीवाल समूह) ज्यादा महत्व देने की जरूरत नहीं है. बोलते-बोलते ये थक जायेंगे. चुप हो जायेंगे. खुर्शीद और गडकरी पर लगे आरोपों के बारे में नेताजी (मुलायम सिंह को उनके समर्थकों ने यही उपाधि दी है) का निष्कर्ष था कि उनके खिलाफ केजरीवाल द्वारा लगाये गये आरोप सच से परे हैं. एकांगी हैं. देश के कानून मंत्री खुर्शीद, केजरीवाल एंड कंपनी को अपने संसदीय क्षेत्र (फरूखाबाद) में आने की धमकी देते हैं, सड़क छाप भाषा में. पर उस पर कोई बड़ा नेता आपत्ति नहीं करता?

इसी पृष्ठभूमि में याद रखिए कि मुलायम सिंह के परिवार और मायावती के खिलाफ बेशुमार निजी संपत्ति बनाने के मामले भी हैं. सुप्रीम कोर्ट तक ये मामले गये हैं. दिल्ली के जानकार कहते हैं कि इन दोनों के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले को कांग्रेस होशियारी से इस्तेमाल करती है. समय-समय पर. मसलन हाल में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया कि मायावती की आय से अधिक संपत्ति के मामले की सीबीआइ चाहे, तो जांच कर सकती है. इस फैसले के चंद दिनों बाद ही मायावती की पार्टी ने फैसला किया कि उनका दल, असहमत होते हुए भी केंद्र सरकार को समर्थन देगा. अब इन दोनों तथ्यों को जोड़ कर तरह-तरह के कयास, अर्थ लगाये जा रहे हैं. पर यह अलग मामला है. राबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों पर भी सभी दलों का लगभग यही आचरण, रवैया या रुख रहा. गडकरी के बचाव में मुलायम सिंह या लालू यादव या अन्य धुर भाजपा विरोधी? क्यों? वाड्रा से लेकर सलमान खुर्शीद पर लगे आरोपों के मामले में केजरीवाल के खिलाफ लगभग सभी दल-नेता एकजुट क्यों?
केजरीवाल ने साबित कर दिया है कि कमोबेश सारे दलों के नेता एक आधार पर या भूमि या जमीन या मंच पर खड़े हैं. दरअसल समाजशास्त्री की भाषा में कहें, तो यह नया वर्ग है. नयी जाति है. देश में जो पुराने राजा-रजवाड़े, रईस, जमींदार या सामंत होते थे, उनकी जगह इस लोकतांत्रिक पद्धति के गर्भ से एक नयी जाति जन्मी है. यह राजनीतिक शासक वर्ग (रूलिंग इलीट) है. इसमें पक्ष-विपक्ष और भूतपूर्व सभी हैं. आजादी के बाद ही इसका जन्म हुआ. पहले जन्म या जन्मना, जाति-वंश के आधार पर लोग विशिष्ट बनते थे. अब इन्हीं शासकों-वर्गो के घरों मे जन्मे लोग देश के भावी नेता हैं. विशिष्ट और खास हैं. पुरानी जातियां टूट रही हैं, नयी जाति जन्म ले रही है. किसी बड़े नेता के घर जन्म लेने का सौभाग्य पाइए, सत्ता आपको उत्तराधिकार में मिलेगी. नेहरू परिवार के वंशवाद के खिलाफ, लोहिया जी व उनकी पार्टी आजीवन लड़े.
अब लोहिया जी के शिष्य इसी वंशवाद को पालने-पोसने और पुष्पित करने में लगे हैं. राजशाही में क्या था? राजा का बेटा, भले ही वह घोर अयोग्य-अकर्मण्य हो, पर राज वही चलायेगा. यही हाल आज है. मार्क्सवादी अवधारणा में वर्गहित सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. यानी वर्गो के हित-स्वार्थ समान होते हैं. इस कसौटी पर इन नेताओं की नयी जाति या वर्ग को परखिए. इनके वर्गहित-स्वार्थ समान हैं. विधायकों-सांसदों का वेतन बढ़ाना हो, पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए आजीवन बंगले या सुविधाएं दिलानी हों, ऐसे अनंत सवालों पर सभी नेता या दल, विचार, दुश्मनी छोड़ कर एक साथ मिलेंगे. अपवाद हैं, पर बेअसर. राजनेताओं की इस नयी जाति में हर धर्म-जाति, संप्रदाय या क्षेत्र के लोग हैं. यह नयी भारतीय शासक जाति है. इस नयी राजनीतिक जगत की खूबसूरती भी है. पहले जातियां, क्षेत्रों में सिमटी थीं. इनका अखिल भारतीय रूप या चेहरा या दायरा नहीं था. तमिलनाडु में करुणानिधि कुनबा या महाराष्ट्र में ठाकरे या पवार कुनबा या यूपी में मुलायम कुनबा .. हर दल में यह दृश्य है. कांग्रेस ने युवा वर्ग को बढ़ाने के नाम पर किन युवाओं को मंत्री बनाया, अधिसंख्य वही, जिनके पिता कांग्रेस के बड़े नेता थे. इन सबके घोषित वर्ग हित तो एकसमान हैं ही, उससे भी अधिक इनके अघोषित वर्गहित हैं, जो इनकी एकता के कारण हैं. इस नयी जाति या वर्ग या समूह के अघोषित वर्गहितों को केजरीवाल व उनके साथियों ने उजागर करना शुरू किया है. इसलिए सब बौखलाये भी हैं. एकजुट भी हैं. जाति, धर्म, क्षेत्र, विचार के हर बाड़ को तोड़ कर एक स्वर में बोल रहे हैं ‘केजरीवाल को जेल में डालो.’
वाड्रा या सलमान खुर्शीद के खिलाफ लगे आरोप गंभीर हैं, पर नितिन गडकरी के खिलाफ लगे आरोप उतने संगीन-साफ नहीं हैं. पर नितिन गडकरी के आरोपों से अन्य गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं, जो वाड्रा-सलमान खुर्शीद से अलग हैं. अत्यंत गंभीर और नैतिक. भारत के बड़े राजनीतिक दल (जो खुद को कांग्रेस का विकल्प मानता है) का अध्यक्ष पूंजीपति या उद्यमी होना चाहिए या दीनदयाल उपाध्याय की परंपरा का? इसका यह अर्थ नहीं कि उद्यमी, पूंजीपति या बड़े लोग राजनीति के शीर्ष पर न जायें?
इस देश में स्वतंत्र पार्टी थी. उसकी विचारधारा, नीति और लक्ष्य साफ थे. उस दल में एक से एक पैसेवाले रहे, पर उनकी निष्ठा, सिद्धांत, आदर्श को मुल्क ने सम्मान दिया. यह भी संभव है कि पैसेवालों में जमनालाल बजाज जैसे लोग हों, ऐजिंल्स जैसे लोग हों, जो गरीबों के उत्थान की नीति को मानते हों. सैद्धांतिक कारणों से पैसेवाले होते हुए भी ऐसे लोग, समतावादी, अर्थनीति के सिद्धांत के पक्ष में खड़े हुए. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. अगर गडकरी जी पूंजीपति होते हुए भी ऐंजिल्स या जमनालाल बजाज की परंपरा के इंसान हैं, गरीबों के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता से राजनीति में उतरे हैं, तब कोई सवाल नहीं उठना चाहिए? पर अगर उनकी पहचान ऐसी नहीं है, तो सवाल उठने ही चाहिए. भाजपा के अध्यक्ष अमीर हैं, तो गरीबों के प्रति, सामाजिक समता के प्रति उनकी भूमिका ईमानदार रहेगी? राजनीति में आने के पहले वह उद्योगपति थे या राजनीति में उदय के बाद वह उद्योगपति हुए, यह भी सवाल है?
आज पूरी दुनिया में सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा है, आर्थिक विषमता का. द इकानामिस्ट (19 अक्तूबर’12) पत्रिका क ी विश्व अर्थव्यवस्था पर विशेष रिपोर्ट में माना गया है कि आर्थिक विषमता ही आज दुनिया की सबसे बड़ी चुनौती है. इस पत्रिका के अनुसार भारत में आर्थिक विषमता बहुत बढ़ी है. इसके अमीरों के अमीर होने की गति या रफ्तार बहुत तेज है. शिकागो विश्वविद्यालय के दुनिया में मशहूर अर्थशास्त्री रघुराम राजन (जो हाल में भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार बनाये गये) ने कहा है कि अर्थव्यवस्था के अनुपात में भारत में दूसरे नंबर पर दुनिया के सबसे संपन्न बिलेनियर (अरबपति) हैं, रूस की अर्थव्यवस्था केअनुपात में. इस विश्वविख्यात अर्थशास्त्री के इस निष्कर्ष का मूल कारण है कि भारत के बिलेनियरों (अरबपतियों) को आसानी से सरकारी जमीन, सरकारी संसाधन और सरकारी ठेके मिल जाते हैं. रघुराम राजन की चिंता है कि भारत एक विषम, कुलीनतंत्र या गुटतंत्र या बदतर (अनइक्वल ओलिगारकी आर वर्स) हाल में तो नहीं जा रहा? जिस मुल्क में ऐसे गंभीर सवाल हों, वहां गडकरी की पृष्ठभूमि के नेता किस नीति पर चलेंगे? वे वर्गहित की बात सोचेंगे, समाजहित की बात सोचेंगे या निजीहित की बात सोचेंगे. यह साफ -साफ समझ लीजिए कि यह मसला सिर्फ गडकरी तक ही नहीं है, यह तो एक संकेत है कि हर दल में अरबपति-करोड़पति सांसदों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. पूरी संसद में अरबपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ रही है, इसलिए हर दल से पूछना चाहिए कि ऐसी पृष्ठभूमि के आपके नेता अपने युग के सबसे गंभीर सवाल, आर्थिक विषमता पर किधर खड़े होंगे? जनता के पक्ष में या अलग-अलग पृष्ठभूमि, विचारधारा दल में होते हुए भी अपने वर्गहित में एक साथ खड़े होंगे, जैसा आज है.
इन दलों के वर्गहित ही समान नहीं हैं. इनकी चाल-ढाल लगभग एक जैसी है. इनकी अंदरूनी व्यवस्था देखिए. जेपी और आचार्य कृपलानी कहा करते थे कि जिन दलों के अंदर लोकतंत्र नहीं है, वे देश के लोकतंत्र के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? दल के अंदर तानाशाही (या आलाकमान) और देश के लोकतंत्र की बागडोर के सूत्रधार! दोनों भूमिकाएं एक ही प्रवृत्ति के मानस और विचार का एक ही नेता कैसे कर सकता है? ये अंतर्विरोधी भूमिकाएं हैं. इसी देश में कांग्रेस समेत सभी दलों के अंदर पहले प्राथमिक सदस्यों की भरती होती थी, वे नेता चुनते थे, कार्यकारिणी सदस्य चुनते थे, अध्यक्ष चुनते थे. वे चुने पार्टी कार्यकर्ता, दलों के वार्षिक सम्मेलनों (जो हर वर्ष नियमित होते थे) में घरेलू नीति, विदेशनीति, अर्थनीति वगैरह तय करते थे. दलों के सत्ता में आने के पहले ही उनकी नीतियां साफ, घोषित और सार्वजनिक होती थीं. सरकार में बैठ कर अचानक नयी नीति घोषित नहीं होती थी. क्यों कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, राजद वगैरह सभी इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था या संस्कृति पर नहीं चल रहे हैं?
दरअसल भारत की राजनीतिक व्यवस्था में जो संस्कृति विकसित हुई है, उसने लगभग सभी दलों को एक नयी संस्कृति, आचार-विचार और स्वरूप दिया है. इस राजनीतिक संस्कृति के विकल्प में, देश बदलने के लिए एक नयी राजनीतिक संस्कृति चाहिए, जो गांधी के विचारों के अनुरूप हो, उनके आर्थिक सिद्धांतों के मानक पर चले. अगर एक दूसरे के खिलाफ हो रहे आरोपों के विस्फोट में यह नयी संस्कृति जनमी, तो इस देश का कल्याण होगा. वरना महज धोतीखोल अभियान (जो फिलहाल चल रहा है), उससे देश का और नाश होगा. केजरीवाल, दामनिया वगैरह नेताओं पर कुछ और आरोप लगायें, मुंबई से वाइपी सिंह कुछ और बोलें, हर नेता को हम नंगा कर दें, पर विकल्प न गढ़ें, तो इस व्यवस्था की बची-खुची साख का क्या होगा? चर्चिल ने कहा था कि आजादी के 50 वर्ष गुजर जाने दीजिए, आजादी के बड़े नेताओं को इस दुनिया से विदा हो जाने दीजिए, फिर भारत का हाल देखिए. चर्चिल ने अत्यंत कठोर, गंदे शब्द इस्तेमाल किये कि किस तरह के गंदे, अराजक, देशतोड़क, अयोग्य, भ्रष्ट और अपराधिक रुझान के नेता भारत में आयेंगे और देश बिखरेगा? हम वही दृश्य साकार कर रहे हैं. इसलिए जरूरी है कि हर संघर्ष के गर्भ से एक सृजन का विश्वसनीय, बेहतर और कारगर राजनीतिक माहौल उभरे.

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रविवार, जून 10, 2012

काशी का अस्सी: एक अलग किस्म का उपन्यास

- उमेश पाठक 


कहानियों के संस्मरणों और चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह का नया उपन्यास है : काशी का अस्सी। जिन्दगी और जिन्दादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास है। उपन्यास के परम्परित मान्य ढाँचों के आगे प्रश्न चिह्न।
पिछले दस वर्षों से ‘अस्सी’ काशीनाथ की भी पहचान रहा है और बनारस की भी। जब इस उपन्यास के कुछ अंश ‘कथा रिपोर्ताज’ के नाम से पत्रिका में छपे थे तो पाठकों और लेखकों मे हलचल सी हुई थी। छोटे शहरों और कस्बों में उन अंक विशेषों के लिए जैसे लूट-सी मची थी, फोटोस्टेट तक हुए थे, स्वंय पात्रों ने बावेला मचाए थे और मारपीट से लेकर कोर्ट-कचहरी की धमकियाँ तक दी थीं।


अब वह मुकम्मल उपन्यास आपके सामने है जिसमें पाँच कथाएँ हैं और उन सभी कथाओं का केन्द्र भी अस्सी है। हर कथा में स्थान भी वही, पात्र भी वे ही-अपने असली और वास्तविक नामों के साथ, अपनी बोली-बानी और लहजों के साथ। हर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे पर इन पात्रों की बेमुरव्वत और लट्ठ मार टिप्पणियाँ काशी की उस देशज और लोकपरम्परा की याद दिलाती है जिसके वारिस कबीर और भारतेन्दु थे !
उपन्यास की भाषा उसकी जान है-देशपन और व्यंग्य-विनोद में सराबोर। साहित्य की ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर’ वाणी शायद कहीं दिख जाय !
सब मिलाकर काशी नाथ की नजरों में ‘अस्सी’ पिछले दल वर्षों से भारतीय समाज में पक रही राजनीतिक-सांस्कृतिक खिचड़ी की पहचान के लिए चावल का एक दाना भर है, बस !

अस्सी का परिचय बकौल काशीनाथ सिंह 


मित्रो, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है ! जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद् ‘परम’ (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे भी कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएँ-
तो सबसे पहले इस मुहल्ले का मुख्तसर-सा बायोडॉटा—कमर में गमछा, कन्धे पर लँगोट और  बदन पर जनेऊ—यह ‘यूनिफॉर्म’ है अस्सी का !


हालाँकि बम्बई-दिल्ली के चलते कपड़े-लत्ते की दुनिया में काफी प्रदूषण आ गया है। पैंट-शर्ट, जीन्स, सफारी और भी जाने कैसी-कैसी हाई-फाई पोशाकें पहनने लगे हैं लोग ! लेकिन तब, जब कहीं नौकरी या जजमानी पर मुहल्ले के बाहर जाना हो ! वरना प्रदूषण ने जनेऊ या लँगोट का चाहे जो बिगाड़ा हो, गमछा अपनी जगह अडिग है !
‘हर हर महादेव’ के साथ ‘भोंसड़ी के’ नारा इसका सार्वजनिक अभिवादन है ! चाहे होली का कवि-सम्मेलन हो, चाहे कर्फ्यू खुलने के बाद पी.ए.सी और एस.एस.पी. की गाड़ी, चाहे कोई मन्त्री हो, चाहे गधे को दौड़ाता नंग-धड़ंग बच्चा—यहाँ तक कि जार्ज बुश या मार्गरेट थैचर या गोर्बाचोव चाहे जो आ जाए (काशी नरेश को छोड़कर)—सबके लिए ‘हर हर महादेव’ के साथ ‘भोंसड़ी के’ का जय-जयकार !
फर्क इतना ही है कि पहला बन्द बोलना पड़ता है—जरा जोर लगाकर; और दूसरा बिना बोले अपने आप कंठ से फूट पड़ता है।
जमाने के लौड़े पर रखकर मस्ती से घूमने की मुद्रा ‘आइडेंटिटी कार्ड’ है इसका ! 
नमूना पेश है—



खड़ाऊँ पहनकर पाँव लटकाए पान की दुकान पर बैठे तन्नी गुरू से एक आदमी बोला—‘किस दुनिया में हो गुरू ! अमरीका रोज-रोज आदमी को चन्द्रमा पर भेज रहा है और तुम घण्टे-भर से पान घुला रहे हो ?’’
मोरी में ‘पंचू’ से पान की पीक थूककर बोले—‘देखौ ! एक बात नोट कर लो ! चन्द्रमा हो या सूरज—भोंसड़ी के जिसको गरज होगी, खुदै यहाँ आएगा। तन्नी गुरू टस-से-मस नहीं होंगे हियाँ से ! समझे कुछ ?’
‘जो मजा बनारस में; न पेरिस में, न फारस में’—इश्तहार है इसका।
यह इश्तहार दीवारों पर नहीं, लोगों की आँखों में और ललाटों पर लिखा रहता है !
‘गुरू’ यहाँ की नागरिकता का ‘सरनेम’ है।
न कोई सिंह, न पांड़े, न जादो, न राम ! सब गुरू ! जो पैदा भया, वह भी गुरू, जो मरा, वह भी गुरू !
वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतन्त्र है यह :



गिरिजेश राय (भाकपा), नारायण मिश्र (भाजपा), अम्बिका सिंह (कभी कांग्रेस, अभी जद) तीनों की दोस्ती पिछले तीस सालों से कायम है और न आने वाली कई पीढ़ियों तक इसके बने रहने के आसार हैं ! किसी मकान पर कब्जा दिलाना हो, कब्जा छुड़ाना हो, किसी को फँसाना हो या जमानत करानी हो—तीनों में कभी मतभेद नहीं होता ! वे उसे मंच के लिए छोड़ रखते हैं...अस्सी के मुहावरे में अगर तीनों नहीं, तो कम-से-कम दो—एक ही गाँड़ हगते हैं।
अन्त में, एक बात और। भारतीय भूगोल की एक भयानक भूल ठीक कर लें। अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं। अस्सी ‘अष्टाध्यायी’ है और बनारस उसका ‘भाष्य’ ! पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से ‘पूँजीवाद’ के पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी ‘टीका’ हो जाए...मगर चाहने से क्या होता है ?
अगर चाहने से होता तो पिछले खाड़ी युद्ध के दिनों में अस्सी चाहता था कि अमरीका का ‘व्हाइट हाउस’ इस मुहल्ले का ‘शुलभ शौचालय’ हो जाए ताकि उसे ‘दिव्य निपटान’ के लिए ‘बहरी अलंग’ अर्थात् गंगा पार न जाना पड़े...मगर चाहने से क्या होता है ?

प्रस्तावना: 


तो मित्रो, यही अस्सी मेरा बोधगया है और अस्सीघाट पर गंगा के किनारे खड़ा वह पीपल का दरख्त बोधिवृक्ष, जिसके नीचे मुझे निर्वाण प्राप्त हुआ था !
अन्तर्कथा यह है कि सन् ’53 में मैं गाँव से बनारस आया था। मँझले भैया रामजी सिंह के साथ। आगे की पढ़ाई के लिए। उन्हें बी.ए. प्राइवेट पढ़ना था घर की खेती-बारी सँभालते हुए। और मुझे इंटर में। वे बेहद सख्त गार्जियन थे—कुछ-कुछ प्रेमचन्द के ‘बड़े भाई साहब’ की तरह ! इस बात का भी मुझे आश्चर्य होता था और उन्हें भी कि अपने अध्यापकों से अधिक ज्ञान के बावजूद, अपने ही मित्रों को पढ़ा-पढ़ाकर पास कराने के बावजूद वे खुद फेल कैसे हो जाते हैं ?
उन्होंने एक बार अपने पास चेले को पकड़ा। रिजल्ट आया ही आया था। उन्होंने पूछा, ‘‘बे लालजी ! हम तुझे पढ़ाए, जो-जो नहीं आता था तुझे सब बताए, लिखाए, रटाए; तू पास हो गया, हम कइसे फैल हो गए ?’ लालजी बोले—‘गुरू, ऐसा है कि आप जो पढ़ाए, वह तो हम पढ़े ही। बाकी आपकी चोरी-चोरी भी कुछ पढ़े थे।’


उन्हें उसके उत्तर से संतोष नहीं हुआ। मुझसे पूछा—‘अन्दाजा लगाओ तो जरा ! क्या बात हो सकती है ? इसमें अन्दाजा लगाने जैसी कोई बात नहीं थी लेकिन मैं अन्दाजा लगाने लगा और नहीं लगा पाया। कारण, कि भैया के शब्दकोश में व्याकरण के लिए कोई जगह नहीं थी ! ‘ने’, ‘में’, ‘का’, ‘पर’, ‘से’ आदि को वे फालतू और बेमतलब समझते थे ! सीधे-सादे वाक्य में अड़ंगेबाजी के सिवा और कोई काम नहीं नजर आता था इनको ।...लेकिन यह बताता तो लात खाता !
बहरहाल, बात ‘निर्वाण’ की।
एक दिन भैया ने कहा—‘तुम्हारी अंग्रेजी कमजोर है। वह बातचीत होने लायक होनी चाहिए। कोई तुमसे अंग्रेजी में कुछ पूछे और तुम उजबक की तरह टुकुर-टुकुर ताकने लगो, यह अच्छा नहीं। तुम अस्सी के चुडुक्कों के साथ खेलना छोड़ो और चलो, अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करो।’



भैया मुझे इसी पीपल के पास ले आए। शाम के समय। घाट पर भीड़-भाड़ कम थी। उन्होंने मुझे एक सीढ़ी के पास बिठा दिया और कहा—‘डेली शाम को यहाँ आकर अभ्यास करो !—ऐसे !’
वे पन्द्रह गज दूर खड़े हो गए—अटेंशन की मुद्रा में और पेड़ से बोले—‘व्हाट इज योर नेम ?’ फिर पेड़ के पास ले गए और सामने देखते हुए उसी मुद्रा में बोले, ‘सर, माई नेम इज रामजी सिंह !’ फिर वहाँ से पन्द्रह गज दूर—व्हाट इज योर फादर्स नेम ?’ फिर पेड़ के पास से—‘सर, माई फादर्स नेम इज श्री नागर सिंह !’ इस तरह वे तब तक पीपल के पास आते-जाते रहे, जब तक पसीने-पसीने नहीं हो गए !
‘हाँ, चलो अब तुम ?’ वे सीढ़ी पर मेरी जगह बैठकर सुस्ताने लगे।
मित्रो ! भगवान झूठ न बुलवाएँ तो कहूँ कि अंग्रेजी बोलना तो मुझे नहीं आया, हाँ, इतना जरूर समझा कि पसीने से ज्ञान का बड़ा गहरा सम्बन्ध है !



इसीलिए जब लोग पूछते हैं कि तुम्हें इतना अधिक पसीना क्यों होता है या बूढ़े बकरे की तरह गन्धाते हो तो मैं उनकी मूर्खता पर हँसकर रह जाता हूँ। अरे भले आदमी, ज्ञानी को ज्ञानोद्रेक से पसीना नहीं आएगा तो क्या कँपकँपी छूटेगी ?
लेकिन साहब, मेरे ज्ञान की बधिया बैठा दी मुहल्ले के ‘आदिवासियों’ ने।
इधर ‘प्रामाणिक अनुभूती’ और उधर ‘भोगा हुआ यथार्थ’ और यथार्थ को पसीने से परहेज !
एक थे हमारे बापजान जो पैना उठाए हमें किताबें-कापियों में जोते रखते थे—‘सालो, खेती तो गई सरकार के ‘उसमें’। अगर यह भी नहीं करोगे तो भीख माँगोगे !’ दूसरी ओर मुहल्ले के बाप थे जो अपने बच्चों का स्कूल में नाम लिखाते थे—पढ़ने के लिए नहीं, सरकार की ओर से मुफ्त बँटने वाली ‘दलिया’ के लिए ! वे केवल ‘रेसस पीरियड’ में ही स्कूल में नजर आते।
उनका एक जीवन-दर्शन था—‘जो पठितव्यम् तो मरितव्यम्, न पठितव्यम् तो मरितव्यम, फिर दाँत कटाकट क्यों करितव्यम् ?’



पूरा मुहल्ला पीढ़ियों से उसी शैली से जीता चला आ रहा था—गाता-बजाता, झूमता, मदमाता ! किसी के पास कोई डिग्री नहीं, रोजगार नहीं, व्यवसाय नहीं, काम नहीं; परलोक सिधारते समय पंडित महाराज ने पत्रा-पोथी लपेटे हुए एक लाल बेठन खोंस दिया बेटे की काँख में—बस ! वे तख्त पर बेठन रखे हुए जनेऊ से पीठ खुजा रहे हैं और जजमान का इन्तजार कर रहे हैं !
जजमान रोज-रोज नहीं आते, ग्रह-नक्षत्र भी रोज-रोज खराब नहीं होते, मुंडन, शादी-ब्याह, जनेऊ जैसे संस्कार भी रोज-रोज नहीं होते और न रोज-रोज फत्ते गुरु की कन्धे पर कुम्हड़ा होता है। फत्ते गुरू कुम्हड़े का पूरा वजन उठाए हुए मुहल्ले-भर को सुनानेवाली आवाज में आत्मलाप करते आ रहे हैं—‘पालागी फत्ते गुरू !’ जय हो जजमान !’’ सट्टी गए थे का गुरू ?’ कवन भँड़ुआ सट्टी जाता है जजमान ?’ अरे तो इतना बड़ा कोंहड़ा ? हफ्ते-भर तो चलेगा ही गुरू !’ हफ्ते-भर तुम्हारे यहाँ चलता होगा। यहाँ तो दो जून के लिए भी कम है !’



मुहल्ला अपने दरवाजों, खिड़कियों, छतों से आँखें फाड़ फत्ते गुरू का कोंहड़ा देख रहा और उनके भाग्य से जल-भुन रहा है। सन्तोष है तो यह कि आज का दिन फत्ते गुरू का, कल का दिन किसी और गुरू का ! कौन जाने हमारा ही हो ?
कहते हैं, बुढ़ापे में तुलसी बाबा कुछ-कुछ ‘पिड़काह’ और चिड़-चिड़े हो चले थे। मुहल्ले वालों ने उनसे जरा भी छेड़छाड़ की, पिनक गए और शाप दे डाला—‘जाओ, तुम लोग मूर्ख दरिद्र रह जाओगे !’
मित्रो, मेरा मतभेद है इससे। शान्तिप्रिय द्वेवेदी को जितना तंग किया मुहल्ले ने, उससे अधिक तंग तो नहीं ही किया होगा बाबा को और अगर उन्हें शाप ही देना था तो जाते-जवाते इनके हाथ ‘मानस’ पोथी क्यों पकड़ा जाते ? फिर भी ये कहते हैं, तो हम मान लेते हैं; लेकिन सरापकर भी क्या कर लिया बाबा ने ? माथे पर चंदन की बेंदी, मुँह में पान और तोंद सहलाता हाथ ! न किसी के आगे गिड़गिड़ाना, न हाथ फैलाना। दे तो भला, न दे तो भला ! उधर मंदिर, इधर गंगा; और घर में सिलबट्टा ! देनेवाला ‘वह’; जजमान भोंसड़ी के क्या देगा ? भाँग छानी, निपटे और देवी के दर्शन के लिए चल पड़े।
चौके में कुछ नहीं, मगर जिए जा रहे हैं—ताव के साथ ! चेहरे पर कोई तनाव नहीं, कहीं कोई फिक्र नहीं और उधर से लौटे तो साथ में कभी-काल, एक जजमान—‘सुन बे रजुआ, खोल केवाड़ी, आयल हौ जजमान चकाचक !’’
तो साहब ! कच्ची उमर और बाला जोबन ! अपन को भा गया यह दर्शन !



काहे की है-है और काहे की खट्-खट् ! साथ तो जाना नहीं कुछ ! फिर क्यों मरे जा रहे हो चौबीसों घंटे ? सारा कुछ जुटाए जा रहे हो, फिर भी किसी के चेहरे पर खुशी नहीं ! यह नहीं है, तो वह नहीं है ! इसे साड़ी, तो उसे फ्रॉक, तो इसे फीस, तो उसे टिफिन, तो इसे दवा, तो उसे टॉनिक, तो इसे...कुछ करो तब भी और न करो तब भी यह दुनिया चल रही है और चलती रहेगी...
प्यारेलाल ! अपनी भी जिन्दगी जियो, दूसरों की ही नहीं !
ऐसे में ही गया था सब्जी लेने अस्सी पर ! लुंगी और जाकिट पहने हुए !
लगभग दो बजे दोपहर।
सन् ’70 के जाड़ों के दिन।
सलीम की दुकान पर खड़ा हुआ ही था कि सड़क से आवाज आई—डॉक्टर !
मैंने मुड़कर देखा तो एक परिचित मित्र ! रिक्शे पर ! इससे पहले एक-दो बार की ही भेंट थी उससे।
मैं पास पहुँचा तो उसने पूछा, ‘आवारगी करने का मन है डॉक्टर ?’
‘क्या मतलब ?’



‘कहीं चलना चाहते हो ? कलकत्ता, बम्बई, दार्जलिंग, कालिंगपाँग, नेपाल कहीं भी !’
मैं चकित ! बोला—‘रुको ! सब्जी देकर आते हैं तो बात करते हैं।’
उसने रिक्शे पर बैठे-बैठे मेरा हाथ पकड़ा—‘एक बात का उत्तर दो। महीने में कितने दिन होते हैं ? तीस दिन। इनमें से कितने दिन तुम्हारे अपने दिन हैं ? ‘अपने’ का मतलब जिसमें माँ-बाप, भाई-बहन, बीवी, बेटा-बेटी किसी का दखल न हो। जैसे चाहो, वैसे रहो, जैसा चाहो, वैसा जियो।’
मैं सोच में पड़ गया।
‘एक दिन, दो दिन, तीन दिन ?’ वह उसी गम्भीरता से बोलता रहा।
मैं चुप।



‘सुनो ! महीने के सत्ताइस दिन दे दो बीवी को बाल-बच्चों को, पूरे खानदान को ! उनसे कहो कि भैया, ये रहे तुम्हारे दिन ! लेकिन ये तीन दिन मुझे दे दो। मेरी भी अपनी जिन्दगी है, उसके साथ जुल्म न करो, समझा ?’
‘और सुनो ! कार्यक्रम बनाकर जीने में तो सारी जिन्दगी गँवा रहे हैं हम ! हम घर से निकलते ही कहते हैं कि सुनो, अमुक जगह जा रहे हैं और इतने बजे आएँगे। और कहीं बाहर जाना हुआ तो हफ्ते-भर के राशन-पानी, साग-सब्जी का बन्दोबस्त करके जाते हैं !...इन सबका कोई मतलब है क्या ? आवारगी करने का भी कार्यक्रम बनाया जाता है क्या ?’
‘ठीक है यार ! मैं सलीम को बता तो दूँ कि सब्जी पहुँचा के घर पर बोल देगा !’
‘लो, फिर वही बात ! अरे, जिन्हें खाना है, वे ले जाएँगे; चलो तुम !’
‘अच्छा चलो !’ मैं भी बगल के रिक्शे पर बैठ गया—‘तुम भी क्या कहोगे ?’



और साहब ! मैंने सोचा था कि शहर से ही कहीं सिनेमा वगैरह देख-दाखकर शाम नहीं तो रात तक लौट आएँगे, लेकिन पहुँच गए पंजाब मेल से सचमुच कलकत्ता, वहाँ के डायमंड हार्बर, फिर वहाँ से काकद्वीप। छककर रास्ते-भर खाया-पिया—मौज मनाई ! पसीने के बगैर जिन्दगी का मजा लिया।...वही लुंगी और जाकिट, हवाई चप्पल, जेब में दस नए पैसे। आन का आँटा, आन का घी। भोग लगावैं बाबाजी !
पाँच दिन बाद लौटे थे घर !
मौज तो बहुत आई, लेकिन लौटानी ट्रेन में ही एक दूसरा ज्ञानोदय हुआ।
जो भी तुम पर पैसा खर्च करता है, वह तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए। प्यारेलाला ! ट्रेन छूटनेवाली है, लपक के जरा दो टिकट तो ले आओ !...जरा उस तरफ बैठ जाओ तो थोड़ा बदन सीधा कर लें...यार, कैसे दोस्त हो, कहीं से एक गिलास पानी नहीं पिला सकते ?...जरा वो तौलिया तो पकड़ाना, ‘फ्रेश’ हो लिया जाए ?...गुरू, सिगरेट तो है मगर माचिस छूट गई, डिब्बे में नजर दौड़ाओ ! कोई-न-कोई जरूर बीड़ी सिगरेट पी रहा होगा !...अगर आप दोस्त के लिए इतना भी नहीं करेंगे तो क्या करेंगे ?



घर में ऐसा कुहराम मचा था कि न पूछिए ! कई दिनों से चूल्हा नहीं जला था और बीवी ने बेवा होने की पूरी तैयारी कर ली थी !
मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि माया-मोह के जंजाल में फँसा मैं—अस्सी का प्रवासी—इस दर्शन के काबिल नहीं !
अस्सी पर प्रवासियों की एक ही नस्ल थी शुरू में—लेखकों-कवियों की !
आजादी के बाद देश में जगह-जगह ‘केन्द्र’ खुलने शुरू हो गए थे—‘मुर्गी-पालन केन्द्र’, ‘मत्स्य पालन केन्द्र’, ‘सुअर-पालन केन्द्र’, ‘मगर-घड़ियाल-पालन केन्द्र’। इन कवियों-लेखकों ने भी अपना एक केन्द्र खोल लिया—केदार चायवाले की दुकान में। ‘कवि-पालन केन्द्र’। कोई साइनबोर्ड नहीं था, लेकिन जनता इसे इसी रूप में जानती थी। सुबह हो या दोपहर या शाम—केदार, विजयमोहन, अक्ष्योभ्येश्वरी प्रताप, शालिग्राम, अधीर, आनन्द भैरवशाही, विद्यासागर नौटियाल, विश्वनाथ त्रिपाठी (देहलवी), श्याम तिवारी, विष्णुचन्द्र शर्मा, बाबा कारन्त—इनमें से किसी को भी समूह में या अलग-अलग यहीं पाया जाता था !



इसके मानद इंचार्ज थे समीक्षक नामवार सिंह और पर्यवेक्षक थे त्रिलोचन। ये कवि प्रायः यहीं से ‘काव्य-भोज’ के लिए ‘तुलसी पुस्तकालय’ या ‘साधु वेला आश्रम’ की ओर रवाना होते।
मगर हास्य ! ’60 के शुरू होते-होते भी ‘फुर्र’ हो गए और केन्द्र भी टूट गया ! 
सन् ’65 के आस-पास जब धूमिल का आविर्भाव हुआ तो उसने गुरु के चरण-चिह्नों पर चलते हुए केदार चायवाले के सामने हजारी की दुकान को ‘केन्द्र’ बनाने की कोशिश की। हजारी के बगल में कन्हैया हलवाई की दुकान। वह कन्हैया के यहाँ से चार आने की जलेबी लेता और चार आने का सेव-दालमोठ और हजारी की दुकान में आ बैठता। इधर-उधर से कवियाये दूसरे लोग भी आते और नागानन्द भी। कवियों की नज़र अखबार या बहस पर होती, नागानन्द की जलेबी-नमकीन के दोनों पर ! 
ऐसे में केन्द्र क्या चलता !



मगर बाद के कई वर्षों तक—जिस प्रकार गोला दीनानाथ के इलाके में घुसते ही मसालों की गन्ध से नाक परपराने लगती है, उसी प्रकार अस्सी पर खड़े होने वाले किसी भी आदमी के कान के पर्दे काव्य-चर्चा से फटने लगते थे। धूमिल काव्य द्रोहियों के लिए परशुराम था और उसकी जीभ फरसा !
अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आँगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास।
इधर सुनते हैं कि कोई बुढ़ऊ-बुढ़ऊ से हैं कासीनाथ-इनभर्सीटी के मास्टर जो कहानियाँ-फहानियाँ लिखते हैं और अपने दो-चार बकलोल दोस्तों के साथ ‘मारवाड़ी सेवा संघ’ के चौतरे पर ‘राजेश ब्रदर्स’ में बैठे रहते हैं ! अकसर शाम को ! ‘ए भाई ! ऊ तुमको किधर से लेखक-कवि बुझाता है जी ? बकरा जइसा दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाने से कोई लेखक कवि न थोड़े नु बनता है ? देखा नहीं था दिनकरवा को ? अरे, उहै रामधारी सिंघवा ? जब चदरा-ओदरा कन्हियाँ पर तान के खड़ा हो जाता था—छह फुट ज्वान; तब भह्-भह् बरता रहता था। आउर ई भोंसड़ी के अखबार पर लाई-दाना फइलाय के, एक पुड़िया नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है ! कवि-लेखक अइसै होता है का ?
सच्चा कहें तो नमवर-धूमिल के बाद अस्सी का साहित्य-फाहित्य गया एल.के.डी. (लौंडा के दक्खिन) !’’
मित्रो, इमर्जेंसी के बाद और ’80 के आस-पास से गजब हो गया !



भारत पर तो बेशक हमले हुए—यवनों के, हूणों के, कुषाणों के, लेकिन अलग-अलग और बारी-बारी, मगर अस्सी पर एक ही साथ कई राज्यों और जिलों से हमले हुए—आरा, सासाराम, भोजपुर, छपरा, बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़, जौनपुर, गोरखपुर, देवरिया जाने कहाँ-कहाँ से ‘जुवा’ लड़के युनिवर्सिटी में पढ़ने आए और चौराहे पर डेरा-डंडा गाड़ चले !
इनमें नई नस्लें थीं !
एक नस्ल पैदा हुई ‘फाइन आर्ट्स’ के शौक से ! ये लड़के ‘मारवाड़ी सेवा संघ’ के चौतरे पर पेंसिल और स्केचबुक लिये बैठे रहते हैं और ‘संघ की ओर से बँटनेवाली खिचड़ी या रोटियों के इन्तजार में बैठी या लेटी गायों, कुत्तों और भिखमंगों कि चित्र बनाया करते हैं !
दूसरी नस्ल ‘तुलसीघाट’ पर आयोजित होने वाले ‘ध्रुपद मेला’ से निकली ! यह गायकों-वादकों और उनकी कला पर फिदा होकर सिर हिलानेवालों की नस्ले हैं ! ये कढ़ाई किए हुए रंग-बिरंगे कुर्ते और चूड़ीदार पाजामा पहने, कन्धे पर झूलते लम्बे बाल बढ़ाए किसी गुरू या चेली के साथ बगल में तानपूरा दबाए इधर-उधर आते-जाते नजर आते हैं।
तीसरी नस्ल और भी जालिम है—पत्रकारों की ! तलवार मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ वालो की। ये मालिकों को गरियाते हैं लेकिन छापते वही हैं जो वह चाहता है ! ये धर्मनिरपेक्ष हैं लेकिन खबरें धर्मोन्माद की छापते हैं ! दंगा, हत्या, लूट-पाट, चोरी डकैती, बलात्कार के शानदार अवसरों पर इनके चेहरे की चमक देखते बनती है !
एक चौथी नस्ल भी है गोवर्धनधारियों की जो कानी उँगली पर ‘राष्ट्र’ उठाए किसी चेले के ‘हीरो-हाण्डा’ पर दस बारह साल से मुस्की मार रहे हैं। लेकिन इनके बारे में बाद में !

शनिवार, अगस्त 27, 2011

यादों में अमिताभ ..



अमिताभ बच्चन की चौथी वर्षगांठ एक ऐसा यादगार लम्हा है, जिसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता। तेजी बच्चन इस समय तक इलाहाबाद के संभ्रांत, संस्कारी व सामाजिक माहौल में अपनी अलग ही पहचान बना चुकी थीं। मुन्ना के चौथे जन्मदिवस के अवसर पर घर में एक पार्टी रखी गई थी, जिसमें शहर के कई चुनिंदा लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी।

पार्टी की रंगत अपने चरम पर थी तभी अचानक वहां कुछ देर के लिए खामोशी पसर गई। इस महफिल में एक खूबसूरत महिला ने अपने दो वर्ष के बेटे के साथ प्रवेश किया।

इन्हें देखते ही उपस्थित सभी मेहमान एक-दूसरे के कान में फुसफुसाने लगे.. 'यह इंदिरा जी हैं'...'फिरोज खान की पत्नी'...'प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बेटी'...।

हमने तो इंदिरा जी को वृद्धावस्था में देखा, तब भी उनके जादुई व्यक्तित्व के पीछे पूरा देश पागल था। सोच सकते हैं कि युवावस्था में उनके चेहरे पर कितना नूर होगा।

इंदिराजी आगे आईं और तेजी से बोलीं.. 'लो मैं तुम्हारे छोटे से लाड़ले को ले आई हूं।' ऐसा कह, उन्होंने बेटे को आगे कर दिया... यह बच्चा कोई और नहीं, बल्कि राजीव गांधी थे। इस तरह अमिताभ और राजीव गांधी की पहली मुलाकात हुई।

दरअसल जन्मदिवस की इस पार्टी के अवसर पर यहां फैंसी ड्रेस कॉम्प्टीशन भी आयोजित किया गया था। इसलिए सभी बच्चे अलग-अलग और रंग-बिरंगी पोशाकों में सजे हुए थे। लेकिन राजीव गांधी धोती-कुर्ते में थे। घुटने से थोड़े ऊपर तक की धोती-कुर्ता और सिर पर टोपी।

जबकि अमिताभ (अमित) ने फौजियों की ड्रेस पहन रखी थी। चार वर्षीय अमित ने दो वर्षीय राजीव का प्रेमपूर्वक अभिनंदन किया। अपना दायां हाथ राजीव के बाएं हाथ में डाले हुए घूमते रहे। लेकिन कार्यक्रम के मुश्किल से आधे घंटे ही बीते होंगे कि राजीव गांधी की धोती खुल गई। राजीव इतने छोटे थे कि वे अपने कपड़े तो संभाल नहीं सकते थे। इंदिराजी ने तुरंत उनके कपड़े बदल दिए और चूड़ीदार पायजामा, खादी का कुर्ता और टोपी पहना दी। अब राजीव बिलकुल राजनेता दिखने लगे।

हम भारतीयों ने तो दशकों बाद राजीव गांधी को राजनेता की पोशाक में देखा लेकिन अमिताभ ने उन्हें 4 वर्ष की उम्र में ही इस पोशाक में देख लिया था।

दोनों के बीच गहरी मित्रता थी। एक बार अमिताभ ने राजीव से कहा भी कि तू इसी गेटअप में जंचता है। देखना एक दिन तू जरूर राजनेता बनेगा।

लेकिन उस समय राजीव को राजनेता बनना पसंद नहीं था। किशोरावस्था से ही उनकी रुचि उपकरणों और इलेक्ट्रिक चीजों में ज्यादा रही। रेडियो, टेपरिकॉर्डर, चाभी से चलने वाले खिलौने, बैटरी से उडऩे वाले विमान जैसे खिलौनों में राजीव गांधी की इतनी रुचि थी कि वे अक्सर इन्हें खोल दिया करते थे और इंजीनियर की तरह उसके पुर्जों की जांच-परख में लग जाया करते थे।

काश, विधाता ने उन्हें विमान की कॉकपिट से उठाकर प्रधानमंत्री के सिंहासन पर न बिठाया होता।

इलाहाबाद में कवि बच्चनजी के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे खुद के लिए एक मकान खरीद सकते। वे अधिकतर समय किराए के मकानों में ही रहे। इसके अलावा उनकी कुंडली में स्थिरता का योग तो जैसे था ही नहीं। निश्चित समयांतर पर उन्हें कई मकान बदलने पड़े।

बैंक रोड, स्ट्रैची रोड, एडल्फी हाउस और इसके बाद क्लाइव रोड स्थित मकान... इलाहाबाद के ये तमाम पुराने मकान आज अमिताभ के चाहने वालों के लिए तीर्थधाम बन चुके हैं। लेकिन उस समय इन सभी घरों में कवि की गरीबी और तेजी के आंसू ही बसा करते थे।

अमितजी के शैशवकाल की अनेक यादें इन मकानों से जुड़ी हुई हैं...

एडल्फी हाउस की बात करें तो यहीं पर अमिताभ की मुलाकात राजीव गांधी से हुई थी और इसी घर में ही अमिताभ के छोटे भाई अजिताभ का जन्म हुआ था। इसके डेढ़-दो महीनों बाद ही भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ था। अमिताभ ने स्कूल जाने की शुरुआत भी यहीं से ही की।

इसी मकान से एक और कड़वी याद जुड़ी हुई है... एक बार शाम के समय कवि हरिवंशराय बच्चन घर आते ही रो पड़े.. तेजी ने उनसे पूछा कि क्या बात है... कवि ने जवाब दिया... 'महात्मा गांधी की हत्या हो गई। हम अनाथ हो गए'।

इधर, बैंक रोड स्थित मकान में जब बच्चन परिवार रहा करता था.. तब अमिताभ को एक बार बहुत तेज बुखार आया था। और उनके स्वस्थ होने के लिए कवि ने प्रतिज्ञा की थी कि उनका बेटा स्वस्थ हो जाए... वे जीवन में कभी भी शराब को हाथ तक नहीं लगाएंगे।

स्ट्रैची रोड स्थित मकान में अमिताभ की वयोवृद्ध दादी मां सुरसती का देहांत हुआ था। इसी समय अमित ने पिता बच्चन से पूछा था ... 'दादी कहां गई?'.. तो बच्चन ने कहा... 'भगवान के पास...'

हालांकि यह सस्ता जमाना था। किराए से मकान आसानी से और कहीं भी मिल जाया करते थे। लेकिन तेजी जब पिताजी के घर थीं तो उनका जीवन शानो-शौकत वाला था। इसलिए उन्हें हमेशा बड़े मकान ही पसंद आया करते थे।

40 के दशक में जब इलाहाबाद में सामान्य मकान का किराया 5 या 7 रुपए हुआ करता था, तब भी बच्चनजी 30-35 रुपए तक किराए के मकान के लिए प्रतिमाह खर्च किया करते थे। मकान को सजाने-संवारने की पूरी जिम्मेदारी तेजी की थी।

कवि तो अधिकतर समय नौकरी और कविताओं के सृजन में या कार्यक्रमों के चलते घर से बाहर ही रहा करते थे। कभी-कभी इनके रहन-सहन को देखकर मकान मालिक भी बेजा फायदा उठाने से नहीं चूकते थे। बच्चन परिवार को पता ही नहीं चलता था और मकान का किराया बढ़ जाया करता था। 30 रुपए किराया रातों-रात 50 रुपए भी हो जाया करता था। जहां तक हो सके वहां तक तेजी मकान मालिकों को सहयोग ही किया करती थीं। बहस या दादागिरी जैसे शब्द तो उनकी जिदंगी की डिक्शनरी में जैसे थे ही नहीं।

इसी तरह बैंक रोड स्थित एक मकान का वाकया है.. यहां मकान मालिक ने अचानक ही मकान का किराया 50 रुपए से बढ़ाकर 75 रुपए कर दिया। कवि इस समय घर पर नहीं थे, किसी काम से दूसरे शहर गए हुए थे। तेजी ने सोचा, यह बात उन्हें बतानी ठीक नहीं.. वे इसे लेकर ङ्क्षचतित हो उठेंगे।

तेजी ने खुद ही दूसरा मकान ढूंढऩा शुरू कर दिया और स्ट्रैची रोड स्थित एक सुंदर और बड़ा बंगला मिल गया। इसकी कीमत भी कम थी। तेजी ने रातों-रात बैंक रोड का यह मकान खाली कर दिया और समान बटोर यहां शिफ्ट हो गईं।

कवि को तो यह बात उनके वापस आने पर ही मालूम हुई। लेकिन वे तेजी की हिम्मत और सूझ-बूझ देख दंग रह गए।

... कुछ ऐसा ही ऐडल्फी हाउस में भी हुआ। इस मकान मालिक ने अचानक ही उन्हे मकान खाली करने का फरमान सुना दिया। कवि चाहते तो मकान मालिक के खिलाफ अदालत भी जा सकते थे, लेकिन वे सीधे-सादे और नम्र स्वभाव के व्यक्ति थे, वे इस तरह का कोई कदम उठाने के पक्ष में नहीं थे।

अमिताभ के मन पर ये बातें गहरा प्रहार किया करती थीं। काल चक्र घूमता रहा... तकदीर ने करवट ली और अब अमिताभ के नाम का सिक्का चलने लगा था। उन्होंने इलाहाबाद जाकर इन मकानों (जहां वे रह चुके थे) की खोजबीन शुरू कर दी।

दोस्तों ने जानकारी दी... 'वह मकान तो अब जर्जर अवस्था में पहुंच गया है, देखने में भी बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

दोस्तों की इस बात पर अमिताभ ने उस समय कुछ नहीं कहा, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने कई मकान खरीद लिए। मकान बेचने वाले भी अब तक यह बात जान चुके थे कि अमिताभ ये मकान क्यों खरीद रहे हैं। अमिताभ जैसे महारथी जब ये मकान खरीद रहे थे तो मकान मालिक भी उनसे क्या ज्यादा कीमत वसूलते? फिर भी अमिताभ ने बिना तोल-भाव के वे मकान खरीद लिए, जहां कभी उनकी पिता की गरीबी और मां के आंसू टपकते थे।

दोस्तों-परिचितों-सगे संबंधियों को जब यह बात मालूम हुई तो सभी ने अमिताभ से कहा कि 'तुम्हें व्यापार करना नहीं आता, अगर तुमने मोल-भाव किया होता तो यही मकान कम कीमत में भी मिल जाते..!'

इसका अमिताभ ने क्या जवाब दिया होगा...? हम अंदाजा लगाते हैं तो इसके जवाब के लिए फिल्म 'दीवार' का यह दृश्य और संवाद बिल्कुल सटीक बैठता है... फिल्म के दृश्य में एक इमारत के लिए बाजार भाव से भी अधिक कीमत चुकाने की बात पर अमिताभ और मकान मालिक के बीच संवाद होता है...

मालिक कहता है... 'आपको सौदा करना नहीं आता, अगर आपने थोड़ी भी खींचतान की होती तो यह मकान आपको सस्ते में भी मिल सकता था...!'

अमिताभ जवाब में कहते हैं... 'माफ करना, बिजनेस करना तो आपको नहीं आता ! अगर आप इस बिल्डिंग के लिए और भी कीमत मांगते तो वह भी आपको मिल जाती...!

मकान मालिक आश्चर्यचकित मुद्रा में अमिताभ से पूछता है... 'ऐसी कौन सी खास बात है इसमें...'

अमिताभ जवाब देते हैं... 'यह बिल्डिंग जब बन रही थी, तब मेरी मां ने यहां ईंटें उठाई थीं...!'

अमिताभ के इलाहाबाद के मित्र उस समय क्या जानते थे... कि जो खंडहर मकान अमिताभ ने मुंह मांगी कीमत में खरीदे... उन मकानों में कभी उनके पिता की लाचारी और मां के आंसू टपके थे....!

सीखें इंटर्नशिप के दौरान .

- उमेश पाठक
किसी भी प्रोफशनल कोर्स में इंटर्नशिप का बड़ा ही महत्व होता है! ये वो समय होता है जब हम न केवल कुछ नया सीख रहे होते हैं बल्कि आने वाले दिनों की नीव भी तैयार करते हैं ! बहुत से लोग इसे गंभीरता से न ले कर गलती कर बैठते होएँ जिसका बाद में खामियाजा भुगतना होता है ! इंटर्नशिप में कं के साथ प्रोफेशनल रिश्ते भी बनते हैं जो बाद में बड़े कारगर होते हैं,लेकिन ये सब आप की अपनी योग्यता .क्षमता और व्यवहार कुशलता पार निर्भर है !
इंटर्नशिप से क्या उम्मीदें हैं, यह बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए। नियोक्ता और आप दोनों को ही यह स्पष्टता होनी चाहिए। यदि यह सब कुछ लिखित रूप में हो तो और अच्छा है।

एमर्जेसी काल का लाभ उठाएं:

इंटर्नशिप की शुरूआत में जितने संभव हों सवाल पूछ डालें। यह एमजेर्ंसी काल होता है, इसका अधिकतम लाभ उठाना चाहिए। क्योंकि शुरुआत में आपसे उम्मीद नहीं की जाती कि आपको सब कुछ पता होगा, लेकिन जितना जल्दी आप सीख लेंगे उतना बेहतर होगा। आपकी परफॉर्मेस रिपोर्ट इसी पर निर्भर करेगी।

परफॉर्मेस फीडबैक:

अपने सीनियर लोगों से नियमित रूप से मुलाकात करें, ताकि आप अपनी उम्मीदों पर खरे उतर सकें। अपने काम की सही फीडबैक जानने का यही सही तरीका है। इससे दूसरा लाभ यह होता है कि आप हमेशा सही रास्ते पर बने रहते हैं।

अवलोकन क्षमता बढ़िया रखें:

कर्मचारी के व्यवहार को लेकर हर संगठन की उम्मीद अलग-अलग होती है। आपके लिए बेहतर होगा कि आप कार्पाेरेट कल्चर सीखकर जल्द से जल्द अपना लें।

समय के पाबंद रहें:

ऑफिस हमेशा तय समय पर पहुंच जाएं। यदि आपको देर होने वाली है तो तत्काल फोन पर सूचित करें। बीमार पड़ें तो भी तुरंत बताएं। इसमें भी सावधानी बरतें कि जिस दिन कोई महत्वपूर्ण काम हो उस दिन तो ऑफिस में जरूर मौजूद रहें।

सहकर्मियों से अच्छे संबंध रखें:

अपने सहकर्मियों के साथ मधुर संबंध बनाकर रखें। विनम्र, सहयोगी, संवदेनशील और दोस्ताना व्यवहार से आपको संबंध बनाने में मदद मिलेगी। बातचीत कर ही सहकर्मियों को जान पाएंगे।

और काम मांगें:

ऑफिस में व्यवहार सामान्य रखें। आपको कोई जिम्मेदारी दी जाती है तो बिना शिकायत स्वीकार करें। हमेशा कोशिश करें कि समय पर काम पूरा कर दें। यदि आप अपने काम से संतुष्ट हैं तो नया काम मांगें।

रिकमंडेशन लेटर जरूर लें:

इंटर्नशिप पूरी करके जाते समय अपने सुपरवाइजर से रिकमंडेशन लेटर यानी सिफारिशी पत्र जरूर ले लें। उससे हमेशा संपर्क में भी रहें। कहीं भी नौकरी के लिए आवेदन करते वक्त रिफरेंस यानी संदर्भ के लिए उनका नंबर दे सकते हैं।

सोमवार, जून 20, 2011

On Fathers day...

मैंने देखा ,
दर्द से तड़पते बूढ़े बाप को ,
उसके आंसुओ में अपने आपको ,
क्यों झेलता है वो रिस्तो के शाप को .
इन्सान खो देता है रिस्तो में अपने आपको ,
मैंने देखा है
उसके पथराई आँखों के सपनों को ,
उसके भूले बिसरे अपनों को ,
तिनका-तिनका बिखरे अरमानो को ,
तिल तिल क्र मरते स्वाभिमानो को ,
मैंने देखा है
जो निभाते है हर रिश्ते चुपचाप ,
अपने लिए न रखते कोई हिसाब ,
फिर भी उनकी इज्जत बेलिबास ,
मैंने देखा है ,
बाप के पसीने से रिस्तो के लहू बनते है ,
उसके अरमानो तले परिवार के सपने सजते है ,
उस बाप के सपने पानी से बहते है ,
जिस सपने और खून से हम बनते है!
मैंने देखा है ,
दर्द से तड़पते बूढ़े बाप को !

(sabhar: Arvind Yogi ji)