इंसान ने गढ़ा मुझको
सदियों से मैं आवाज बनी,
बिल्कुल.एेसे ना थी पहले,
जैसी हूँ मैं अाज बनी
सभी बोलियाँ बहने मेरी
मुझमें ही मिल जाती हैं।
आज मगर देखो तो उनकी
संख्या घटती जाती है ।
प्रेम,मान-अपमान हूँ मैं,
कविता, मन की अभिलाषा हूँ,
पहचानो मुझसे प्यार करो ,
मैं भाषा हूँ । मैं भाषा हूँ ।
उमेश पाठक, दिल्ली, 25/10/2018
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