मुझको यारों माफ़ करना ,मैं अभी शहर में हूँ!
याद फ़िर भी गावं आता,मैं अभी शहर में हूँ!
लोगों की खुदगर्ज़ आँखें देखती हैं दिल कहाँ?
रोज धोखे खा रहा हूँ,मैं अभी शहर में हूँ!
जिन बुजुर्गों की दुआएं ले के पहुँचा अर्श तक
याद कर पता न उनको मैं अभी शहर में हूँ!
भीड़ अंधों की है दौडे मेरे ही चारो तरफ़ ,
मुझको भी दीखता नही अब ,मैं अभी शहर में हूँ!
वक्त की ड्योढी में बैठे यार पीछे खींचते,
उनसे मिल पता नही अब ,मैं अभी शहर में हूँ!
चाँद आ कर देखता है ,अब भी मुझको गावं से
अपनी बिल्डिंग में छुपा हूँ ,मैं अभी शहर में हूँ!
-उमेश पाठक
(महानगरों की दौड़ती- भागती ज़िन्दगी में इन्सान बहुत पीछे छूटता जा रहा है ,उपर्युक्त कविता नगरीय संस्कृति के अनुभव से उपजी है ! )
बहुत ही सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना , बधाई आपको
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