
- उमेश पाठक
यू तो सबकी जिंदगी जीने के अपने तरीके होते हैं और हर आदमी अपने हिसाब से ही जीता है लेकिन शहरी जिंदगी का अपना अलग ही रूप है ! इस भौतिक युग में जहा आम आदमी दाल -रोटी से जूझ रहा है वहीँ शहरी मध्य वर्ग अपनी आवश्यकताओं /उपभोग की वस्तुओं के लिए अपनी जिंदगी किश्तों (इंस्टालमेंट ) के नाम किए हुए है ! लोगों की एक बड़ी संख्या है जो किसी न किसी लोन मसलन कार/घर आदि का किश्त भरने में लगी है !ये वो लोग हैं जो अपना आने वाला १०-२० साल इसी उधारी के नाम कर चुकें हैं!वे चाहें या न चाहें उन्हें इन किश्तों के लिए काम करना ही होगा ! मतलब ये की वर्तमान तो वर्तमान ,भविष्य भी उधार है ,उस पर हमारा कोई बस नही(जब तक किश्त पुरा न हो जाए ) यानि अगले दस-बीस साल की जिंदगी उधार की है !
पुराने ज़माने में साहूकारों ने जो काम किया था आज वही काम विभिन्न कम्पनियां कर रही हैं! साहूकार जहा ज़रूरत पर धन उपलब्ध करते थें ये कम्पनियां अपने उत्पाद/वस्तुएं दे रहीं हैं ! गौर से देखें तो यह उसी सहकारी का बदला हुआ रूप है जो हमें प्रेमचंद की कहानियो में दिखता है !शोषण यहाँ भी है लेकिन छद्म रूप में /छिपा हुआ जिसे सभी लोग आसानी से नही समझ पातें! योजना स्टाक रहने तक और आकर्षक ऑफर के पीछे के कंडीसन अप्लाई या शर्तें लागू का सच तो बाद में उजागर होता है !
महात्मा गाँधी ने कहा था "हमें संसाधनों का कम से कम प्रयोग की आदत डालनी चाहिये ,जिससे सभी लोगों की आवश्यकता की पूर्ति हो सके!"आज स्थिति इसके ठीक विपरीत है !हम सभी लोग अपनी आवश्यकता बढ़ने में लगें हैं! जाहिर है किसी न किसी की ज़रूरत तो बाधित होगी ही !इसका ये मतलब नही है की हम चीजों का उपभोग न करें लेकिन जहाँ तक संभव हो सके कम उपभोग/प्रयोग तो कर ही सकते हैं और अपना जीवन बिना किसी के दबाव के जी सकतें हैं !उधार की जिंदगी से बचने का अन्य कोई रास्ता नही है!इसी जीवन में सच्चा सुख है ,ये उधार की वस्तुएं हमें सच्चा सुख नही दे सकती बल्कि एक प्रकार की पराधीनता का ही एहसास कराती हैं!