रविवार, जून 07, 2009

ज़िन्दगी !


-उमेश पाठक

कछुए वाली खोल जिन्दगी,

गले पड़ी सी ढोल जिंदगी !

रोजी -रोटी के सवाल पर,

पढ़ती है भूगोल जिन्दगी

ऊपर से हसती -मुस्काती ,
भीतर पोलमपोल जिन्दगी !

ख़ुद से भी बातें करने में ,

करती टाल-मटोल जिन्दगी !

न जाने कब बीच सफ़र में ,

करे बिस्तरा गोल जिन्दगी !

कछुए वाली खोल जिन्दगी,
गले पड़ी सी ढोल जिंदगी !